आचार्य रजनीश
"ओशो "
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ओशो- आचार्य रजनीश
ओशो, जिन्हें भगवान श्री रजनीश, आचार्य रजनीश, या बाद में ओशो के नाम से जाना गया, एक भारतीय गुरु, ध्यान शिक्षक और दार्शनिक थे। उनके विचारों और शिक्षाओं ने दुनिया भर में लाखों लोगों को प्रभावित किया। उनका जीवन प्रेरणा, विवाद, और अध्यात्म से भरा हुआ था।
आइए, ओशो के जीवन को विस्तार से समझें:
1. प्रारंभिक जीवन (1931-1950)
जन्म और परिवार:
ओशो का जन्म 11 दिसंबर 1931 को मध्य प्रदेश के रायसेन जिले के एक छोटे से गाँव कुचवाड़ा में हुआ था। उनका मूल नाम चंद्रमोहन जैन था।
वे अपने नाना-नानी के साथ पले-बढ़े, जो उन्हें बेहद प्यार करते थे। उनका बचपन स्वतंत्रता और जिज्ञासा से भरा था।बचपन की विशेषताएँ:
ओशो बचपन से ही जिज्ञासु और विद्रोही स्वभाव के थे। वे पारंपरिक मान्यताओं और धार्मिक रीति-रिवाजों पर सवाल उठाते थे।आठ साल की उम्र में, उन्होंने मृत्यु का अनुभव किया, जब उनकी नानी का निधन हुआ। इस घटना ने उनके जीवन में गहरी छाप छोड़ी और उन्हें जीवन और मृत्यु के रहस्यों पर विचार करने के लिए प्रेरित किया।
2. शिक्षा और विद्रोह (1951-1966)
शिक्षा:
ओशो ने जबलपुर विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र (Philosophy) में स्नातक (1955) और सागर विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर (1957) की पढ़ाई की।उन्हें दर्शनशास्त्र में स्वर्ण पदक मिला।
प्रोफेसर के रूप में:
ओशो ने 1958 से 1966 तक जबलपुर विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र पढ़ाया।उनके प्रवचन और तर्कशीलता ने छात्रों और सहकर्मियों को प्रभावित किया, लेकिन उनके विचारों ने पारंपरिक समाज में विवाद भी खड़ा किया।
जागरण का अनुभव:
ओशो का कहना था कि उन्हें 21 मार्च 1953 को ध्यान करते हुए आध्यात्मिक जागरण (Enlightenment) का अनुभव हुआ। यह उनके जीवन का एक बड़ा मोड़ था।
3. आध्यात्मिक यात्रा और प्रवचन (1966-1974)
सार्वजनिक प्रवचन:
1966 में, उन्होंने अपनी प्रोफेसर की नौकरी छोड़ दी और पूरी तरह से ध्यान और प्रवचन के माध्यम से लोगों को शिक्षित करने का कार्य शुरू किया।वे भारत के विभिन्न शहरों में घूमकर अपने विचार प्रस्तुत करते थे।
उनके प्रवचन में ध्यान, प्रेम, स्वतंत्रता और जीवन के अर्थ जैसे विषय शामिल थे।
धर्म और परंपरा पर सवाल:
ओशो ने हिंदू, मुस्लिम, ईसाई और अन्य धर्मों की पारंपरिक मान्यताओं को चुनौती दी। वे किसी भी धार्मिक अनुयायिता को बंधन मानते थे और स्वतंत्रता का समर्थन करते थे।नई दृष्टि:
ओशो ने ध्यान की नई तकनीकें विकसित कीं, जैसे डायनामिक ध्यान, जिसमें शारीरिक और मानसिक ऊर्जा को जागृत करने के लिए सक्रिय और गतिशील प्रक्रियाएँ शामिल थीं।
4. पुणे आश्रम (1974-1981)
आश्रम की स्थापना:
1974 में ओशो ने पुणे में अपने पहले आश्रम की स्थापना की। यह आश्रम ध्यान, योग और आध्यात्मिक विकास का केंद्र बन गया।दुनिया भर से हजारों लोग ओशो के अनुयायी बने।
उनके आश्रम में ध्यान के साथ-साथ रचनात्मकता, कला और चिकित्सा की गतिविधियाँ भी होती थीं।
सिद्धांत और शिक्षाएँ:
उन्होंने भौतिक और आध्यात्मिक जीवन को संतुलित करने पर जोर दिया।
प्रेम, ध्यान, और मन की स्वतंत्रता उनके विचारों के केंद्र में थे।
5. रजनीशपुरम और अमेरिका का काल (1981-1985)
अमेरिका की यात्रा:
1981 में, ओशो अमेरिका चले गए, जहाँ उनके अनुयायियों ने ओरेगॉन में 64,000 एकड़ भूमि पर रजनीशपुरम नामक एक कम्यून (सामुदायिक बस्ती) की स्थापना की।यह बस्ती ध्यान और सामूहिक जीवन का केंद्र थी।
विवाद और विवाद:
रजनीशपुरम में अनुयायियों की बढ़ती संख्या और उनकी स्वतंत्र जीवन शैली ने स्थानीय निवासियों और अमेरिकी सरकार के साथ संघर्ष पैदा किया।1985 में, ओशो पर वीज़ा उल्लंघन और अन्य आरोप लगे। उन्हें गिरफ्तार किया गया और अंततः अमेरिका छोड़ने का आदेश दिया गया।
6. अंतिम वर्ष (1985-1990)
भारत वापसी:
ओशो भारत लौट आए और पुणे आश्रम को फिर से सक्रिय किया।इस समय, उन्होंने ध्यान, प्रेम, और विश्व शांति के लिए नई शिक्षाएँ दीं।
नाम परिवर्तन:
1989 में, उन्होंने खुद को "ओशो" कहना शुरू किया, जिसका अर्थ है "ओशनिक एक्सपीरियंस" (महासागर जैसा अनुभव)।मृत्यु:
19 जनवरी 1990 को पुणे में ओशो का निधन हो गया। उनके अनुयायियों का कहना है कि उन्होंने अपनी इच्छा से शरीर छोड़ा।
ओशो की शिक्षाएँ और दर्शन
स्वतंत्रता और आत्म-अभिव्यक्ति:
ओशो मानते थे कि हर व्यक्ति को अपनी पहचान और जीवन जीने का तरीका खुद चुनने का अधिकार है।
प्रेम और ध्यान:
प्रेम को सबसे ऊँचा अनुभव मानते हुए, उन्होंने इसे ध्यान और जागरूकता का आधार बताया।
धर्म और विज्ञान का मेल:
उन्होंने आधुनिक विज्ञान और प्राचीन आध्यात्मिकता को जोड़ने का प्रयास किया।
समाज के नियमों से परे:
ओशो ने समाज द्वारा लगाए गए नियमों और नैतिकताओं को चुनौती दी और स्वतंत्रता को सबसे बड़ा मूल्य माना।
ओशो का प्रभाव
आज ओशो की शिक्षाएँ दुनिया भर में लोकप्रिय हैं। उनके नाम पर पुणे में ओशो इंटरनेशनल मेडिटेशन रिज़ॉर्ट है, जहाँ हर साल हजारों लोग ध्यान और योग सीखने आते हैं। उनकी सैकड़ों किताबें, जो उनके प्रवचनों पर आधारित हैं, 60 से अधिक भाषाओं में अनुवादित हैं।
ओशो का जीवन और उनके विचार न केवल आध्यात्मिकता में रुचि रखने वालों के लिए, बल्कि उन सभी के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं, जो स्वतंत्रता और सत्य की खोज में हैं।
ओशो के जीवन से जुड़ी कहानियाँ उनकी गहरी विचारशीलता, अनोखे व्यक्तित्व, और अद्वितीय दृष्टिकोण को प्रकट करती हैं। इनमें से कई कहानियाँ उनके बचपन, आध्यात्मिक अनुभवों, और उनके विद्रोही स्वभाव को दर्शाती हैं। आइए, ओशो के जीवन से जुड़ी कुछ प्रसिद्ध और रोचक कहानियों को विस्तार से समझते हैं:
1. बचपन में मृत्यु का अनुभव और पहली जागरूकता
ओशो के जीवन में 7 साल की उम्र में उनकी नानी की मृत्यु हुई। वे उन्हें बेहद प्यार करते थे।
जब उनकी नानी का अंतिम संस्कार किया गया, ओशो घंटों तक चुपचाप शव के पास बैठे रहे।
इस घटना ने उन्हें मृत्यु की प्रकृति और जीवन के अस्थायित्व पर गहराई से सोचने के लिए प्रेरित किया।
वे कहते थे, "मुझे पहली बार समझ आया कि जीवन और मृत्यु साथ-साथ चलते हैं। जब तक आप मृत्यु को नहीं समझते, जीवन का अर्थ नहीं समझ सकते।"
2. मृत्यु से सामना और जिज्ञासा
ओशो ने 14 साल की उम्र में अपने मित्र शिवानंद को डूबते हुए देखा।
उन्होंने शिवानंद को बचाने की कोशिश की, लेकिन असफल रहे।
इस घटना ने उन्हें मृत्यु और चेतना के सवालों पर गहराई से सोचने के लिए प्रेरित किया।
उन्होंने कहा, "शिवानंद की मृत्यु ने मुझे भीतर से झकझोर दिया। मैं हर क्षण को पूरी तरह से जीने के महत्व को समझने लगा।"
3. 21 मार्च 1953: आध्यात्मिक जागरण का अनुभव
ओशो ने कहा कि 21 मार्च 1953 को, जब वे 21 वर्ष के थे, उन्होंने "आध्यात्मिक जागरण" का अनुभव किया।
जबलपुर के एक बगीचे में ध्यान करते हुए, वे अचानक एक गहरी शांति और परमानंद की अवस्था में चले गए।
उन्होंने अनुभव किया कि उनका "अहंकार" समाप्त हो गया और वे अस्तित्व के साथ एक हो गए।
इस अनुभव को वे अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण मोड़ मानते थे।
ओशो के शब्दों में:
"उस रात, अस्तित्व ने मुझे पूरी तरह से अपनी गोद में ले लिया। मैं मर गया और पुनर्जन्म हुआ।"
4. शिक्षक के साथ तर्कशीलता
ओशो बचपन से ही बहुत तर्कशील थे। एक बार स्कूल में, शिक्षक ने गीता का पाठ सुनाते हुए कहा कि भगवान कृष्ण ने कहा है, "धर्म की स्थापना के लिए मैं अवतार लेता हूँ।"
ओशो ने तुरंत सवाल किया, "क्या यह धर्म की असफलता नहीं है कि भगवान को बार-बार अवतार लेना पड़ता है?"
इस सवाल से शिक्षक निरुत्तर हो गए।
ओशो का यह स्वभाव उन्हें हर विषय पर गहराई से सोचने और पारंपरिक मान्यताओं को चुनौती देने के लिए प्रेरित करता था।
5. प्रोफेसर से विवाद
जबलपुर विश्वविद्यालय में पढ़ाते समय, ओशो अपने सहकर्मियों और छात्रों के बीच अपनी विद्रोही सोच के लिए जाने जाते थे।
एक बार एक सह-प्रोफेसर ने कहा, "धर्म और विज्ञान साथ नहीं चल सकते।"
ओशो ने उत्तर दिया, "धर्म और विज्ञान साथ नहीं चलते क्योंकि धर्म केवल विश्वास पर आधारित है, लेकिन असली धर्म अनुभव पर आधारित होना चाहिए।"
उनकी यह बात छात्रों को प्रेरणा देती थी, लेकिन परंपरावादी सहकर्मियों को असहज कर देती थी।
6. डायनामिक ध्यान की खोज
ओशो ने ध्यान के पारंपरिक तरीकों को प्रभावी नहीं माना, इसलिए उन्होंने "डायनामिक ध्यान" की खोज की।
इस पद्धति में शारीरिक गतिविधियों और गहरी सांस लेने के माध्यम से शरीर और मन की ऊर्जा को जागृत किया जाता है।
यह पद्धति उनके एक अनुभव से प्रेरित थी, जब उन्होंने देखा कि पारंपरिक ध्यान में लोग विचारों से जूझते हैं, लेकिन शारीरिक सक्रियता के साथ ध्यान करना आसान हो सकता है।
वे कहते थे, "डायनामिक ध्यान से व्यक्ति अपने भीतर के पुराने बोझों को छोड़ सकता है।"
7. ओशो और उनकी कारों का प्रेम
ओशो को लक्ज़री कारों का बहुत शौक था। उनके पास एक समय में 93 रोल्स रॉयस थीं, जो उनके आश्रम में खड़ी रहती थीं।
यह बात उनके आलोचकों को विचलित करती थी, लेकिन ओशो ने इसे समझाया।
उन्होंने कहा, "मैं सादा जीवन नहीं जीता, क्योंकि मैं मानता हूँ कि साधारण जीवन और विलासिता दोनों ही आत्मा को प्रभावित नहीं करते। मैं इन चीजों का आनंद लेता हूँ, लेकिन मैं उनसे बंधा नहीं हूँ।"
8. रजनीशपुरम की स्थापना और विवाद
1981 में, ओशो अमेरिका गए और ओरेगन में रजनीशपुरम नामक एक कम्यून की स्थापना की।
इस कम्यून में हजारों अनुयायी रहने लगे, लेकिन यह स्थानीय निवासियों और सरकार के साथ संघर्ष का केंद्र बन गया।
एक अनुयायी ने एक बार ओशो से पूछा, "यहाँ इतनी अशांति क्यों है?"
ओशो ने उत्तर दिया, "जहाँ प्रकाश होता है, वहाँ उसकी छाया भी होती है। सत्य अपने साथ संघर्ष और विरोध भी लाता है।"
9. अंतिम प्रवचन: मौन में प्रवेश
ओशो ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में कहा, "अब मेरे लिए मौन ही पर्याप्त है। मैंने वह सब कह दिया है, जो कहना था। अब मैं केवल मौन के माध्यम से सिखाऊँगा।"
उनके अंतिम प्रवचनों में, उन्होंने ध्यान और मौन की शक्ति पर जोर दिया।
वे कहते थे, "शब्द सिर्फ एक माध्यम हैं; सच्चाई मौन में छिपी है।"
ओशो की कहानियों से प्रेरणा
मृत्यु से जीवन का पाठ: जीवन को पूरी तरह से जीना और हर पल का आनंद लेना।
विद्रोही स्वभाव: परंपराओं और मान्यताओं पर सवाल उठाना।
स्वतंत्रता का मूल्य: स्वयं को हर प्रकार के बंधन से मुक्त करना।
प्रेम और ध्यान: जीवन में प्रेम और ध्यान को प्राथमिकता देना।
ओशो की कहानियाँ उनके अद्वितीय दृष्टिकोण और उनके अनुयायियों के लिए गहरे प्रेरणा स्रोत का प्रतीक हैं। उनका जीवन एक ऐसा उदाहरण है, जो दिखाता है कि हर व्यक्ति को अपनी राह खुद बनानी चाहिए।
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