बाजा-बाजा री मायड़, हथ जौड़ा आनन्द छाए
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10/13/20251 मिनट पढ़ें
बाजा-बाजा री मायड़-2, हथ जौड़ा आनन्द छाए ।
बाजा-बाजा री मायड़-2, हथ जौड़ा आनन्द छाए ।।
गगन मंडल में तकत हजूरी, उस पै आप मुरारी रि माँ ।
गगन मंडल में तकत हजूरी, उस पै आप मुरारी रि माँ ।।
मेरे नैना आगै झुक-झुक करकै, न्यू करता फिरै खिलारी रि माँ ।
माँ प्यारी रि माँ प्यारी रि, सूरत नू आनन्द छाएं ।।1।।
बाजा-बाजा री मायड़, हथ जौड़ा आनन्द छाए ।
बाजा-बाजा री मायड़, हथ जौड़ा आनन्द छाए ।।
सरमाती मैं खेली कौनी पिया जी से होली ।
सरमाती मैं खेली कौनी से होली ।।
गुरुवा जी मैं प्रेम घनेरा न घूंघर गाती खोली ।
बोली-बोली री मा शब्द मधुरा आनन्द छाए ।।2।।
बाजा-बाजा री मायड़, हथ जौड़ा आनन्द छाए ।
बाजा-बाजा री मायड़, हथ जौड़ा आनन्द छाए ।।
गगन मण्डल में मण्डप छाया मैं उसपे ब्याह करवाऊ ।
सब धन्धे विश्राम छोड़कर गुरुवां के गुण गांऊ ।।
ब्याहो-ब्याहो री माँ, हो वर पुरा आनन्द छाए ।।3।।
बाजा-बाजा री मायड़, हथ जौड़ा आनन्द छाए ।
बाजा-बाजा री मायड़, हथ जौड़ा आनन्द छाए ।।
मीरा दासी प्रेम मगन हो, नैना नीर बहाया ।
मीरा दासी प्रेम मगन हो, नैना नीर बहाया ।।
राणा जी से क्या प्रेम करू , मेरे घट के बीच समाया ।
पाया पाया री माँ, सतगुरु कोरा आनंद छाए ।।4।।
बाजा-बाजा री मायड़, हथ जौड़ा आनन्द छाए ।
बाजा-बाजा री मायड़, हथ जौड़ा आनन्द छाए ।।
“बाजा-बाजा री मायड़, हथ जोड़ा आनंद छाए” —
यह भजन मीरा जैसी भक्ति-भावना, आनंद की अनुभूति, और आत्मा के परमात्मा से मिलन (विवाह) का प्रतीक है।
यह केवल शब्दों का गीत नहीं — बल्कि आत्मा का गीत है, जिसमें विरह, आनंद, और समर्पण तीनों एक साथ गूँजते हैं।
आइए इसे गहरे अर्थों (भावार्थ + प्रतीक अर्थ) में समझते हैं —
🌺 मुख्य भाव-सार
यह भजन आत्मा के दिव्य मिलन (spiritual union) की कथा कहता है।
“बाजा-बाजा री मायड़” यानी —
“हे सखियों! अब तो आनंद का बाजा बज रहा है, क्योंकि आत्मा ने परमात्मा से मिलन पाया है।”
यह वह अवस्था है जहाँ साधक को भीतर गुरु की उपस्थिति और ईश्वर का साक्षात्कार होता है —
अब सब कुछ आनंदमय, उत्सवमय, और पूर्ण लगता है।
🔹 बाजा-बाजा री मायड़, हथ जोड़ा आनंद छाए।
“हे सखियों! बाजा बजाओ, मैं हाथ जोड़कर कहती हूँ — आनंद छा गया है।”
भावार्थ:
भक्त कहती है — “अब मेरे भीतर आनंद की लहर है, मैं परमात्मा के साक्षात प्रेम में डूब गई हूँ।”
प्रतीक अर्थ:
👉 “बाजा” = आंतरिक नाद (divine vibration)
👉 “मायड़” = सखियाँ / अन्य साधक आत्माएँ
👉 “हथ जोड़ा” = कृतज्ञता और नम्रता
➡️ आत्मा का यह नृत्य भीतर के ‘आनंद नाद’ का प्रतीक है — जब मन शांत होकर ईश्वर से मिल जाता है।
🔹 गगन मंडल में तकत हजूरी, उस पै आप मुरारी रि माँ।
“गगन मंडल में (अंतराकाश में) एक दिव्य आसन है, उस पर स्वयं मुरारी (भगवान) विराजमान हैं।”
भावार्थ:
भक्त अब ध्यानावस्था में उस दिव्य स्थल को देखती है जहाँ ईश्वर विराजमान हैं।
यह कोई बाहरी गगन नहीं, अंतर का आकाश (inner consciousness) है।
प्रतीक अर्थ:
👉 “गगन मंडल” = ध्यान का अंतरिक्ष, चेतना का उच्च क्षेत्र
👉 “तक्त हजूरी” = परम सत्ता का सिंहासन (divine throne)
👉 “मुरारी” = भगवान (जो मोह रूपी मुर का संहार करते हैं)
➡️ यह पंक्ति साक्षात्कार (realization) की अवस्था का वर्णन है — जहाँ साधक को भीतर ईश्वर का दरबार दिखता है।
🔹 मेरे नैना आगै झुक-झुक करकै, न्यू करता फिरै खिलारी रि माँ।
“मेरे नेत्र बार-बार झुकते हैं, और भीतर कोई खेल खेलने लगता है।”
भावार्थ:
भक्त कहती है — “मेरी दृष्टि नम्र हो गई, भीतर प्रेम का खेल चल रहा है।”
अब वह अहंकार से मुक्त होकर विनम्रता से उस दिव्यता को निहार रही है।
प्रतीक अर्थ:
👉 “नैना झुकना” = विनम्रता, समर्पण
👉 “खिलारी” = स्वयं भगवान जो लीला रचते हैं
➡️ यह वह क्षण है जब भक्ति का खेल भीतर प्रकट होता है — आत्मा और परमात्मा की नृत्य-लीला।
🔹 सरमाती मैं खेली कौनी पिया जी से होली।
“मैं सरम (लज्जा) भूलकर अपने पिया के साथ होली खेलने लगी।”
भावार्थ:
यहाँ भक्त लज्जा, लोक-दृष्टि और द्वैत सब भूल गई — अब केवल प्रेम का रंग शेष है।
प्रतीक अर्थ:
👉 “होली” = प्रेम और एकत्व का खेल
👉 “सरम भूलना” = अहंकार और सामाजिक बंधनों का लोप
➡️ यह आत्मा का पूर्ण समर्पण है — जहाँ भक्त परमात्मा के साथ प्रेम के रंग में रंग जाती है।
🔹 गुरुवा जी मैं प्रेम घनेरा, न घूंघर गाती खोली।
“हे गुरुजी! मेरे भीतर प्रेम इतना गहरा हो गया कि अब घूँघट खोलकर गाने लगी हूँ।”
भावार्थ:
भक्त अब अपने भीतर के प्रेम को छिपा नहीं सकती।
वह खुलकर ईश्वर-प्रेम का गीत गाती है — अब कोई परदा नहीं।
प्रतीक अर्थ:
👉 “घूंघर” = अज्ञान या संकोच का आवरण
👉 “गुरु” = वह जो ज्ञान देता है
➡️ गुरु के ज्ञान से अब प्रेम पूर्ण रूप से प्रकट हुआ — कोई आडंबर नहीं, केवल अनुभव।
🔹 गगन मंडल में मण्डप छाया, मैं उसपे ब्याह करवाऊ।
“गगन मंडल (अंतराकाश) में मण्डप सजा है, मैं उसी पर अपना ब्याह रचाऊँ।”
भावार्थ:
यह आत्मा और परमात्मा के दिव्य विवाह (union) का प्रतीक है।
अब आत्मा अपने “पिया” से मिलन करने को तैयार है।
प्रतीक अर्थ:
👉 “मण्डप” = ध्यान का क्षेत्र, जहाँ मिलन घटता है
👉 “ब्याह” = आत्मा-परमात्मा का मिलन
➡️ अब साधक पूर्ण रूप से अपने “गुरु” या “राम” में लीन हो जाती है — कोई द्वैत नहीं बचता।
🔹 मीरा दासी प्रेम मगन हो, नैना नीर बहाया।
“मीरा प्रेम में मग्न होकर आँसू बहा रही है।”
भावार्थ:
यहाँ भक्त स्वयं को मीरा की भाँति दासी मानती है —
प्रेम की गहराई में आँसू बहते हैं, क्योंकि भीतर “अनंत मिलन” और “विरह का अंत” दोनों हैं।
प्रतीक अर्थ:
👉 “मीरा” = भक्ति का प्रतीक
👉 “नैना का नीर” = आत्मा का निर्मल भाव
➡️ यह वह अवस्था है जहाँ आनंद और करुणा दोनों एक साथ बहते हैं।
🔹 राणा जी से क्या प्रेम करूं, मेरे घट के बीच समाया।
“मैं राणा (सांसारिक राजा) से क्या प्रेम करूँ, जब मेरा प्रिय मेरे हृदय में समाया है?”
भावार्थ:
अब भक्त को बाहरी संसार में कोई आकर्षण नहीं।
उसका प्रिय, उसका भगवान, अब भीतर ही बस गया है।
प्रतीक अर्थ:
👉 “राणा” = संसार का वैभव
👉 “घट के बीच समाया” = अंतःकरण में परमात्मा की उपस्थिति
➡️ आत्मा अब मुक्त है — उसे बाहरी प्रेम नहीं चाहिए, क्योंकि भीतर अनंत मिल गया है।
🔹 पाया पाया री माँ, सतगुरु कोरा आनंद छाए।
“माँ, मैंने पा लिया — सतगुरु को पाया, और आनंद छा गया।”
भावार्थ:
यह भजन का चरम बिंदु है —
जहाँ साधक को ज्ञान, प्रेम और परम सत्य का साक्षात्कार हो जाता है।
प्रतीक अर्थ:
👉 “सतगुरु” = दिव्य सत्य, परमात्मा
👉 “आनंद छाए” = मुक्ति की अवस्था
➡️ यह “मीरा” का अंत नहीं, बल्कि उसकी पूर्णता है — अब वह स्वयं आनंद स्वरूप हो गई है।
🌼 समग्र भाव
यह भजन एक यात्रा है —
1. प्रेम के जागरण से
2. अंतरदर्शन तक
3. और अंततः आनंद-मिलन (union with the Divine) तक।
यह मीरा की भक्ति का आंतरिक रूप है,
जहाँ "ब्याह", "होली", "बाजा" — सब रूपक हैं
उस परम आनंद की स्थिति के,
जहाँ आत्मा स्वयं ईश्वर में लीन हो जाती है।
🪔 ध्यान-मनन के प्रश्न (Spiritual Reflection)
1. क्या मेरे भीतर का “गगन मंडल” (inner sky) शांत और निर्मल है जहाँ मुरारी विराज सकें?
2. क्या मैं अपने “घूंघर” (अहंकार, भय, संकोच) को उतारने को तैयार हूँ?
3. क्या मैंने जीवन की “होली” प्रेम के रंग से खेली है — या अब भी सूखी है?
4. क्या मेरा “ब्याह” बाहरी रीति से है या आत्मा के भीतर घट रहा है?
5. क्या मैंने “सतगुरु” को पहचान लिया — अपने भीतर के साक्षी रूप में?
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