बाणा तू बदलै सो-सो बार

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10/20/20251 मिनट पढ़ें

बाणा तू बदलै सो-सो बार, बदलै बान तेरा बेड़ा पार |

बाणा तू बदलै सो-सो बार, बदलै बान तेरा बेड़ा पार ||

सोने-चाँदी की चूच मंडायी, चला हंस की लार रै |

कागा बाण कुबाण न छौडे जित सत्संग लाचार||1||

बाणा तू बदलै सो-सो बार, बदलै बान तेरा बेड़ा पार |

बाणा तू बदलै सो-सो बार, बदलै बान तेरा बेड़ा पार ||

युग-युग सिचों अरण्ड दूध तै , लागै नाही बा कै अनार|

चन्दन चूर-चूर कर डारौ, बो तजता नहीं महकार ||2||

बाणा तू बदलै सो-सो बार, बदलै बान तेरा बेड़ा पार |

बाणा तू बदलै सो-सो बार, बदलै बान तेरा बेड़ा पार ||

साजन के मुख अमी बरसे, जब बोले जब आवै प्यार |

दुर्जन का मुख बन्द कर राखो, भट्टी भरें अंगार ||3||

बाणा तू बदलै सो-सो बार, बदलै बान तेरा बेड़ा पार |

बाणा तू बदलै सो-सो बार, बदलै बान तेरा बेड़ा पार ||

अपनी बीती आप कही है नहीं किसी के सिर पै भार |

रविदास अब मोहसर पाया सिमरो सर्जन हार ||4||

बाणा तू बदलै सो-सो बार, बदलै बान तेरा बेड़ा पार |

बाणा तू बदलै सो-सो बार, बदलै बान तेरा बेड़ा पार ||

यह सुंदर भजन संत रविदास जी की शैली में रचा गया है, जो मानव के भीतर के परिवर्तन, सच्चे संगति के प्रभाव, और ईश्वर-स्मरण की स्थिरता को बड़ी गहराई से समझाता है।
आइए इसे चरणबद्ध रूप में सरल और फिर गूढ़ (आध्यात्मिक) अर्थों में समझते हैं ।

🌿 मुख्य पंक्ति (ध्रुवपद):

“बाणा तू बदलै सो-सो बार, बदलै बान तेरा बेड़ा पार”

(हे मनुष्य! तू अपने स्वभाव, अपना मार्ग, अपना आचरण सैकड़ों बार बदल — जब तू अपनी दिशा (बान) बदल लेगा, तब तेरा बेड़ा पार होगा।)

सरल अर्थ:

मनुष्य अगर बार-बार अपने जीवन में सुधार करता रहे, अपने दोषों को बदलने का प्रयास करता रहे, तो अंततः उसका जीवन सफल हो जाएगा।

गूढ़ अर्थ:

यह “बाण” (तीर) वास्तव में जीवन की दिशा या मन का संकल्प है।
जो साधक बार-बार अपनी वृत्तियों को शुद्ध करता है — रज, तम से हटाकर सत् में लाता है — वही आत्मिक मुक्ति (बेड़ा पार) प्राप्त करता है।
मनुष्य का उत्थान तभी संभव है जब वह अपने भीतर का “मार्ग” बार-बार सुधारता रहे।

🌸 पहला पद:

“सोने-चाँदी की चूच मंडायी, चला हंस की लार रै |
कागा बाण कुबाण न छोड़े, जित सत्संग लाचार ||”

सरल अर्थ:

सोना-चाँदी पहनकर कोई हंस (शुद्ध आत्मा) नहीं बनता।
जिसका मन कौवे जैसा (दुष्ट) है, वह सत्संग में भी अपनी बुरी आदत नहीं छोड़ता।

गूढ़ अर्थ:

  • “सोने-चाँदी की चूच” = बाहरी आडंबर, दिखावा, भोग-विलास।

  • “हंस” = विवेकशील आत्मा, जो केवल मोती (सत्य) चुनती है।

  • “काग” = अज्ञान, लोभ, वासना में डूबा मन।

संदेश: केवल बाहरी साधन या सत्संग की उपस्थिति पर्याप्त नहीं — जब तक भीतर का स्वभाव (काग वृत्ति) नहीं बदलता, आत्मिक उत्थान असंभव है।

🌸 दूसरा पद:

“युग-युग सिचों अरण्ड दूध तै, लागै नाही बा कै अनार |
चन्दन चूर-चूर कर डारौ, बो तजता नहीं महकार ||”

सरल अर्थ:

अरंडी के पेड़ को चाहे युगों तक दूध से सींचो, वह मीठा फल (अनार) नहीं देगा।
लेकिन चंदन को चाहे पीसकर मिट्टी में डाल दो, उसकी सुगंध नहीं जाती।

गूढ़ अर्थ:

यह स्वभाव और संस्कार का संकेत है।
जिसका स्वभाव नीच है (अरंडी जैसा), वह चाहे कितने ही उपदेश सुन ले, उसका हृदय नहीं बदलता।
परंतु जिसका स्वभाव पवित्र है (चंदन जैसा), वह कठिन परिस्थितियों में भी अपनी सुगंध — यानी धर्म, करुणा, सत्य — नहीं खोता।

संदेश: आत्मा का वास्तविक सौंदर्य भीतर की पवित्रता में है, न कि बाहरी आडंबर में।

🌸 तीसरा पद:

“साजन के मुख अमी बरसे, जब बोले जब आवै प्यार |
दुर्जन का मुख बन्द कर राखो, भट्टी भरें अंगार ||”

सरल अर्थ:

सज्जन के मुख से अमृत बरसता है, क्योंकि वह प्रेम से बोलता है।
परंतु दुर्जन (बुरा व्यक्ति) का मुख तो अंगारों की भट्टी जैसा है — उससे केवल जलन और कटुता निकलती है।

गूढ़ अर्थ:

  • “साजन” = ज्ञानी, संत, ईश्वरभक्त।

  • “दुर्जन” = अहंकारी, वासनाग्रस्त, अज्ञानी मन।

संदेश: संगति बहुत महत्व रखती है —
सज्जनों का संग तुम्हारे मन को मधुर बनाता है,
जबकि दुर्जन का संग हृदय को जलाता है।
अतः सच्चे शब्दों और सत्संग से ही जीवन अमृतमय बनता है।

🌸 चौथा पद:

“अपनी बीती आप कही है नहीं किसी के सिर पै भार |
रविदास अब मोहसर पाया, सिमरो सर्जन हार ||”

सरल अर्थ:

जो अपनी बीती (अनुभव) स्वयं कहता है, वह किसी और को दोष नहीं देता।
संत रविदास कहते हैं — मैंने सच्चा मार्ग पा लिया है; अब सृष्टिकर्ता का स्मरण करो।

गूढ़ अर्थ:

यह आत्म-जागरूकता और आत्म-स्वीकार की चरम स्थिति है।
जब साधक समझ जाता है कि दुःख या मोह किसी और से नहीं, अपने भीतर से है,
तब वह “सर्जनहार” — परमात्मा — में लीन हो जाता है।

संदेश: आत्म-ज्ञान का सार यही है —
दोष बाहर नहीं, भीतर खोजो।
जब “मैं” का मोह मिट जाता है, तभी ईश्वर की स्मृति स्थिर होती है।

🕉️ समग्र भावार्थ (सार):

यह भजन कहता है —

“मनुष्य का जीवन तभी सार्थक है जब वह अपने भीतर के स्वभाव, अपने विचारों और संगति को बार-बार सुधारता रहे।”

  • बाहरी आडंबर से नहीं,

  • भीतर की सुगंध, प्रेम, और विनम्रता से ही मुक्ति मिलती है।

  • सच्चे सत्संग और आत्मचिंतन से मनुष्य ‘हंस’ बन सकता है — जो माया के बीच भी मोती (सत्य) चुन लेता है।

💫 ध्यान-मनन प्रश्न:

1. क्या मैं अपने भीतर का “बाण” (मार्ग, स्वभाव) बदलने का प्रयास कर रहा हूँ?

2. मेरे जीवन में कौन-सी “काग वृत्तियाँ” हैं जिन्हें मैं नहीं छोड़ पा रहा?

3. क्या मेरा संग (विचार, समाज, मीडिया) मुझे “हंस” बना रहा है या “काग”?

4. क्या मैं अपने अनुभवों की जिम्मेदारी खुद लेता हूँ, या दोष दूसरों को देता हूँ?