घास और पत्थर

अद्भूत ध्यान का आकलन

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10/7/20241 मिनट पढ़ें

एक साधक नदी के किनारे -किनारे चल रहा था, अपनी मस्ती में मस्त तभी अचानक उसकी नजर नदी के बीचों-बीच पड़े पत्थर और नदी के किनारे खड़े घास पर गयी। यही सब साथ में खड़ा एक पेड़ भी देख रहा था। तभी अचानक जो साधक है , वह सोचने लगा कि नदी अपनी मस्ती में मस्त बह रही है, इसे अपने प्रियतम से मिलने की तलब है और जो भी रास्ते में आ रहा है, उसको छोड़ कर आगे बढ़ती जा रही है। तभी उसके व्यवस्थित मन में प्रश्न कौंधा कि अगर मानव घास के तिनके के समान रहे, तब वह नदी के बहाव के साथ तथा विपरीत रहकर भी अपना अस्तित्व बनाये रख सकता है, क्योंकि घास नदी के साथ तालमेल बनाकर रखता है, और अपनी जड़ जमाए रहता है, इसमें यदा-कदा नए-नए तिनके फूटते रहते है। पानी मिलता रहता है, तथा घास का विकास होता रहता है। फिर भी घास-घास ही रहती है। यदा-कदा, कभी-कभार किसी पूजा मण्डप में थोड़ा प्रयोग आती है नहीं तो घास ही बनी रहती है। अर्थात यदि पूजा पाठ न हो तो उसका कोई अस्तित्व नहीं है।

अब स्वामी जी ने पास खड़े पेड़ के बारे में सोचना शुरू किया कि पेड़ ने पता नहीं कितने बसन्त देखे है। विभिन्न परिस्थितियों का सामना भी किया होगा, कभी पक्षी इसकी डालो पर बैठे होंगे, कभी पशुओं और यात्रियों ने इसकी छाया का आश्रय पाया होगा, साथ ही साथ नदी के कल-कल भरी ध्वनियों से गदगद रहा होगा, कभी पक्षियों का कलरव, कभी नदी किनारे मेंढकों की टर-टराहट का पूरा मजा लिया होगा, सब कुछ सामान्य तथा दुरुस्त रहा होगा तभी तो इतना बड़ा हो पाया और आज भी अपने अस्तित्व पर कायम है।

तभी अचानक स्वामी जी को नदी के तलहटी में बड़े पत्थर का ध्यान आया तथा घास एवं पेड़ से तुलना की, तो पाया पत्थर तो पत्थर है इसमें न कुछ पैदा होता है ना यह किसी को कुछ देता है। इसलिए इसका जीवन व्यर्थ है, नदी के रास्ते में भी अड़ा खड़ा है, नदी भी इससे खरी-खोटी सुना रही होगी। परन्तु अब स्वामी जी रास्ते चलते रहे और अन्त में यह कहकर सब कुछ छोड़ दिया कि सब भगवान की मर्जी है। अब आप साधक की जगह खड़े होकर तीनों पर विचार कर सकते है कि कौन सही है।

कहानी में चार मुख्य पात्र है एक स्वामी या साधक, दूसरा घास, तीसरा पेड़ और चौथा पत्थर, सब अपनी-अपनी तरह से अपनी-अपनी परिस्थिति से मस्त है। हम अब विस्तार से चर्चा करेंगे।

स्वामी जोकि आधुनिक साधक है, जिसका मतलब है, इधर-उधर से ज्ञान की बातें इकट्ठी करना तथा उन्हें दूसरों से जोड़ना, परन्तु यह सारी-उम्र ज्ञान को ढोता रहता है। ना तो इसका अपना स्वभाव ज्ञान और ध्यान को प्राप्त करना है और ना ही अनुभवशील बनना है, केवल कोरी निराधार बातें में समय गवाता रहता है । क्योंकि इसको तीनों के बारे में सोचने का समय है, परन्तु अपने बारे में नहीं सोच पाता है, इसलिए उम्रभर इधर-उधर ज्ञान बाटता फिरता है और परिणाम कुछ नहीं निकलता है।

घास की तुलना अगर हम सामान्य जन से करें तो कोई बुराई नहीं है, यह अपनी मस्ती में मस्त रहता है, कभी-कभार अगल-बगल में हो रहे भजन कीर्तन का आनन्द लेता है, और बस उसी से खुश रहता है, कि उस से बड़ा धार्मिक तो कोई हो ही नहीं सकता है। एक दो दिन कुछ याद रहता है फिर अपने निर्वाह में मस्त है, और सोचता है कि उसे तो सर्वोच्च शिखर प्राप्त हो गया है, क्योंकि भजन-कीर्तन में बताया जाता है ‘सत्संग की आधी घड़ी, तप के वर्ष हजार’ के बराबर है, वह इसी से बौराया रहता है कि सत्संग में गया था और ये जो लोग जप, तप, व्रत कर रहे है इनसे तो ऊपर ही हूँ।

पेड़ की तुलना हम आधुनिक नामधारी समाज से करते है, जोकि सोचता है कि एक या दो शब्द को बार-बार रटने से उसे परम की प्राप्ति हो जाएगी तथा अपने भ्रम को पोषित करता है, यह लोगो के, समाज के सभी रंगो में ढलता है, चलता है, करता कुछ नहीं केवल रटा लगाता है। और सोचता है उसने सारी कायनात को मुट्ठी में कर लिया है, यहाँ तक कि मृत्यु भी इनके कहे अनुसार आ पायेगी। ऐसे बहुत से खोखले दावे प्रस्तुत किए जाते है।

पत्थर की तुलना उस महान साधक से करते है जो अपने निजत्व , अस्तित्व और स्वभाव को जानता है, उस पर अडिग रहता है। तथा सब कुछ समर्पित कर देता है, अपने परम की प्राप्ति को, ना किसी की आलोचना ना किसी का भय, बस धीरे-धीरे अपने आप को नदी की विरल धारा में घोलता रहता है। अपने को न्योछावर कर देता है, यह ना यह सोचता है कि क्या होगा, कैसे होगा, कब होगा बस लगा रहता है, धीरे-धीरे अपने आपको परम में विरक्त कर देता है। तथा परम को प्राप्त कर लेता है।

अतः जो साधक निस्वार्थ अपने ध्यान में लगा रहता है, किसी अन्य से तुलना नहीं करता है, दिखने में तो वह पत्थर दिखता है। परन्तु असीम की प्राप्ति भी उसे ही होती है। इस कारण उसकी नियमितता है, यह कभी परिणाम की सोचता नहीं बस गति करता रहता है। थोड़ा-सा सहारा लेता है, नदी से और अपने आपको सम्पूर्ण समाहित कर देता है या बलिदान कर देता है।

नदी:- नदी आप ध्यान को समझ सकते है जोकि चारों को बराबर अवसर दे रही है, परन्तु समर्पित एक ही हो पाया है और नदी ने उसे ही पार पहुँचा दिया। आप अपनी सजगता पर पत्थर की भांति अड़े रहे ताकि आप भी परम को प्राप्त कर सके। दीपक से दीपक जलता है, अगर एक दीपक भी जल जायेगा तो दूसरों को भी सहारा मिल जायेगा जलने में, फिर बस आनन्द ही आनन्द सर्वोच्च शिखर आपके लिए है।

कहानी का विश्लेषण:

यह कहानी विभिन्न पात्रों के माध्यम से जीवन, ज्ञान, और आध्यात्मिकता के विभिन्न दृष्टिकोणों को समझाने का एक अद्भुत प्रयास है। प्रत्येक पात्र अपने तरीके से जीवन की सच्चाइयों और आध्यात्मिक साधना की गहराई को दर्शाता है। आइए, कहानी में प्रत्येक पात्र के संदेश और उनके अर्थ पर विस्तार से चर्चा करें:

1. स्वामी (साधक):

- विश्लेषण: स्वामी ज्ञान को केवल इधर-उधर से इकट्ठा करता है, लेकिन उसे अपने अनुभव में परिवर्तित नहीं कर पाता। वह दूसरों को ज्ञान बांटता है, लेकिन स्वयं ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया में असफल रहता है।

- शिक्षा: यह हमें बताता है कि ज्ञान को केवल सुनना या पढ़ना पर्याप्त नहीं है। ज्ञान का वास्तविक उपयोग तभी होता है जब उसे अनुभव में परिवर्तित किया जाए।

2. घास:

- विश्लेषण: घास सामान्य जन का प्रतीक है जो साधारण जीवन जीता है। वह भजन-कीर्तन का आनंद लेते हुए संतुष्ट रहता है, लेकिन उसके पास गहरे ज्ञान या समझ का अभाव है।

- शिक्षा: यह दर्शाता है कि सत्संग और धार्मिक गतिविधियाँ महत्वपूर्ण हैं, लेकिन केवल बाहरी आनंद से आत्मिक विकास नहीं होता। हमें गहरे आत्म-ज्ञान की ओर अग्रसर होना चाहिए।

3. पेड़:

- विश्लेषण: पेड़ एक ऐसा व्यक्ति है जो बाहरी मान्यता और सामाजिक अनुमोदन के लिए जीता है। वह अपने ज्ञान को दूसरों के सामने पेश करने में लगा रहता है, परंतु वास्तव में वह आत्मिक ज्ञान को नहीं समझता।

- शिक्षा: यह हमें चेतावनी देता है कि केवल बाहरी दिखावे और रटने से हमें परम प्राप्ति नहीं होगी। वास्तविकता में, हमें गहरे ज्ञान की आवश्यकता है जो हमें समाज के रंगों से ऊपर उठाए।

 4. पत्थर:

- विश्लेषण: पत्थर एक सच्चे साधक का प्रतीक है जो अपने अस्तित्व को जानता है। वह निस्वार्थ भाव से अपनी साधना में लगा रहता है और परम की प्राप्ति के लिए समर्पित है।

- शिक्षा: यह दर्शाता है कि असली साधक वह है जो अपने ज्ञान को आत्मसात करता है, किसी की परवाह नहीं करता, और धीरे-धीरे परम में विलीन हो जाता है। यह एक महत्वपूर्ण पाठ है कि ध्यान और साधना में निरंतरता और समर्पण आवश्यक हैं।

5. नदी:

- विश्लेषण: नदी सभी को समान अवसर देती है, लेकिन केवल वही साधक आगे बढ़ता है जो समर्पित है। यह ध्यान की धारा को दर्शाता है जो सभी को एक समान अवसर प्रदान करती है।

- शिक्षा: यह हमें याद दिलाती है कि हम सभी के पास आध्यात्मिक विकास का अवसर है, लेकिन हमें अपने प्रयासों और समर्पण को भी ध्यान में रखना चाहिए।

निष्कर्ष:

कहानी का सार यह है कि जीवन के विभिन्न पहलुओं को समझना और उनका अनुभव करना आवश्यक है। ज्ञान, साधना, और ध्यान में एक संतुलन बनाना चाहिए। केवल बाहरी आनंद में खोना, या ज्ञान को केवल इकट्ठा करना, हमारे आध्यात्मिक विकास में सहायक नहीं होगा। वास्तविक साधना तब होती है जब हम अपने अनुभवों को आत्मसात करते हैं और उन्हें अपने जीवन में लागू करते हैं।

इस प्रकार, यदि हम साधक के रूप में अपनी यात्रा में "पत्थर" की तरह अडिग रहें और ध्यान में लीन रहें, तो हम निश्चित रूप से अपने जीवन में गहरी आध्यात्मिकता और संतोष प्राप्त कर सकते हैं।