हरि का ठाँडो लादा जा, मैं बंजारा, राम-नाम करता फिरूँ व्यापार

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12/8/20251 मिनट पढ़ें

हरि का ठाँडो लादा जा, मैं बंजारा,

हरि का ठाँडो लादा जा, मैं बंजारा,
राम-नाम करता फिरूँ व्यापार ।

ओट-घाट घणा घना, निर्गुण बैल हमरां;
राम-नाम धन लादियो —
विष भरियो संसार । ।

हरि का ठाँडो लादा जा, मैं बंजारा,
राम-नाम करता फिरूँ व्यापार ।

अंते हो धन धारियो, अंते ही ढूँढन जा;
अंत का धरो ना पापियो —
तू चालह मूल गवाँ । ।

हरि का ठाँडो लादा जा, मैं बंजारा,
राम-नाम करता फिरूँ व्यापार ।

रै गवायो सो के, दिवस गवायो खा-के;
हीरा—ये तन पाइयो,
कोढ़ी बदले जाय । ।

हरि का ठाँडो लादा जा, मैं बंजारा,
राम-नाम करता फिरूँ व्यापार ।

साधु-संत कती भई — वस्तु भई निरमोल;
सहज वरदबा लादकर,
चमक से ठाड़ो मोल । ।

हरि का ठाँडो लादा जा, मैं बंजारा,
राम-नाम करता फिरूँ व्यापार ।

जैसा रंग कुसुंभ का — ए संसार जणाब;
रमिया रंग मजीठ का,
ताते कहै रविदास । ।

हरि का ठाँडो लादा जा, मैं बंजारा,
राम-नाम करता फिरूँ व्यापार ।

गहरी आध्यात्मिक व्याख्या

(“हरि का ठाँडो लादा जा, मैं बंजारा…”)

यह भजन मनुष्य की आत्मिक यात्रा का रूपक है।
हम सब इस धरती पर एक बंजारे की तरह आए हैं—अस्थायी ठिकाने, अस्थायी शरीर, अस्थायी संबंध।

पर बंजारे की असली कमाई क्या है? — राम-नाम। यानी आंतरिक प्रकाश, सजगता, चेतना की संपदा

1. “हरि का ठाँडो लादा जा, मैं बंजारा, राम-नाम करता फिरूँ व्यापार।”

मनुष्य कह रहा है—“संसार की राहों में चलते-चलते, मैं उस सच्चे धन को भरूँ, जो मेरे साथ पार जाएगा — राम-नाम (चेतना की जागृति)।”

यह पंक्ति बताती है कि जीवन का लक्ष्य भीतर की प्रभुता को कमाना है,
न कि बाहरी वस्तुओं को इकट्ठा करना।

2. “ओट-घाट घणा घना निर्गुण बैल हमरां; राम-नाम धन लादियो, विष भरियो संसार।”

यहाँ संसार को विष-भरा कहा है—क्योंकि:

  • यहाँ ग़लतफहमियाँ हैं

  • इच्छाओं की आग है

  • तुलना, द्वेष, भय, और लोभ है

पर साधक का बैल (उसकी चेतना) निर्गुण है—वह इस बाहरी विष को ढोता नहीं, उस पर असर नहीं लेता।

3. “अंत का धरो ना पापियो, तू चालह मूल गवा।”

जीवन के अंत में पूछताछ होती है—तुमने क्या कमाया?

  • मकान? नहीं चलता साथ

  • रिश्ते? नहीं चलते साथ

  • शरीर? यही छूट जाता है

अंत में केवल चेतना का संचित प्रकाश साथ जाता है।

इसलिए कवि चेतावनी देता है—“तू मूल (सच्ची कमाई) मत गंवा!”

4. “हीरा ये तन पाइयो, कोढ़ी बदले जाय।”

यह शरीर—
यह मन—
यह चेतना—
यह मानव-जन्म—

ये सब हीरे की तरह अनमोल हैं।
पर हम इसे रोज़मर्रा की इच्छाओं में कोढ़ी के बदले बेच देते हैं
यानी अर्थहीन चीजों में खो देते हैं।

5. “वस्तु भई निरमोल… सहज वरदबा लाद कर…”

संतों की शिक्षा —सजगता, प्रेम, भक्ति, राम-नाम ये सब अनमोल वस्तुएँ हैं।

इन्हें किसी योग्यता की ज़रूरत नहीं—ये “सहज” मिलती हैं, बशर्ते हृदय विनम्र हो।

6. “जैसे रंग कुसुंभ का ऐसा ये संसार; रमिया रंग मजीठ का — ताते कह रविदास।”

कुसुंभ (एक फूल) का रंग जल्दी उतर जाता है।
वही संसार है —क्षणिक, अस्थायी।

मजीठ (एक जड़) का रंग गहरा और अटल होता है।
वही राम-नाम,
वही सजगता,
वही आत्म-प्रकाश

संत रविदास की पुकार: “क्षणिक रंगों में मत खो—जो स्थायी सत्य है उसे पकड़।”

भावार्थ सार

हम सब राही हैं, बंजारे हैं।
जीवन की पोटली में केवल एक ही धन सहेजकर चलना है—चेतना, नाम, सजगता का प्रकाश, भीतर की प्रभु-बूंद यही हमारा असली व्यापार है। बाकी सब धूल है।

दास्तान: “बंजारे का अनमोल ठाँडो”

रेत के समंदर में एक पुराना काफ़िला-रास्ता था।उस रास्ते पर एक बंजारा चलता था—उसका नाम था फकीरनू

लोग कहते थे—“यह बंजारा खाली आता है,पर भरा-भरा लौटता है।”

एक दिन, शहर के एक अमीर युवक रईस ने उससे पूछा: “फकीरनू, तू बेचता क्या है?तेरे पास तो न ऊँट ज़्यादा, न सामान!”

बंजारा मुस्कुराया:“मैं हरि का ठाँडो लादता हूँ, और राम-नाम का व्यापार करता हूँ।” रईस चकित हुआ।
“यह कैसा व्यापार है?”

बंजारे ने कहा—पहली घाटी: “आईना-ए-जहाँ” चलते-चलते दोनों एक घाटी में पहुँचे
जहाँ हवा में विष-सा तीखापन था।
रईस बोला: “यह कैसी घाटी है?”

फकीरनू ने कहा:“यह संसार की घाटी है—जहाँ लोग ज़हर ढूँढकर पीते हैं और अमृत को पहचान नहीं पाते।”

रईस ने अपने भीतर देखा—वह भय, क्रोध, लालसा से भरा हुआ था। उसे लगा जैसे कोई भारी बोझ उतरा।

दूसरी घाटी: ‘दीपक-ए-अंदर’

आगे बढ़े तो एक शांत झील मिली। उसके पास एक बुझा दीपक रखा था।

बंजारे ने कहा: “इसे हाथ से नहीं, अंदर की हाज़िरी से जलाओ— याद करो: मैं हूँ।”

रईस ने आँखें बंद कीं।
एक पल में भीतर शांत प्रकाश उठा—दीपक जल गया।

वह समझ गया—सच्चा प्रकाश बाहर का नहीं, भीतर का है।

तीसरी घाटी: ‘रंगों का राज़’

अब दोनों एक मैदान में आए
जहाँ दो रंग बिक रहे थे—

  • एक चमकीला पर जल्द मिटने वाला — कुसुंभ

  • एक फीका पर गहराई तक उतरने वाला — मजीठ

बंजारे ने कहा: “रईस, लोग कुसुंभ का चमकदार रंग खरीदते हैं— धन, प्रतिष्ठा, दिखावा।

पर मजीठ—यही नाम, भक्ति, सजगता—जिसका रंग कभी नहीं उतरता।”रईस की आँखों में आँसू आ गए।
उसे समझ आया—वह अब तक मिटते रंगों में खोया था।

अंतिम सत्य

रात हुई तो दोनों आग के पास बैठे। बंजारे ने उसकी ओर देखा और कहा: “बेटा रईस, तू हीरे जैसा तन पाकर इसे रोज़मर्रा की खटपट में कोढ़ी के बदले बेचता रहा।अब असली धन ले—हरि का ठाँडो

बाकी सब रेत है, उड़ती चली जाती है।” सुबह जब रईस उठा, फकीरनू जा चुका था— पर उसकी पोटली हल्की नहीं, भारी थी।

उसमें कोई सोना चाँदी नहीं, बल्कि एक अविनाशी एहसास रखा था: “राम-नाम का धन ही मेरा सच्चा व्यापार है।” और वह भी चल पड़ा—बंजारा बनकर, प्रकाश का सौदागर बनकर।