ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी (Īśvarapratyabhijñāvimarśinī)
"अभिनवगुप्त"
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12/5/20241 मिनट पढ़ें
ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी (Īśvarapratyabhijñāvimarśinī)- अभिनवगुप्त
ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी (Īśvarapratyabhijñāvimarśinī) कश्मीर शैव दर्शन के महान आचार्य अभिनवगुप्त द्वारा रचित एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। यह ग्रंथ उनके दार्शनिक विचारों और कश्मीर शैववाद के प्रधान सिद्धांतों की एक विस्तृत और गहन व्याख्या प्रस्तुत करता है।
यह ग्रंथ उद्योतकर द्वारा रचित ईश्वरप्रत्यभिज्ञा सूत्र (जिसे ईश्वरप्रत्यभिज्ञा कारिका भी कहा जाता है) पर आधारित है। अभिनवगुप्त ने इसमें इस दर्शन के मुख्य सिद्धांतों का विस्तारपूर्वक वर्णन और तात्त्विक व्याख्या की है।
ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी का परिचय
लेखक:
यह ग्रंथ अभिनवगुप्त द्वारा लिखा गया है, जो कश्मीर शैव दर्शन के प्रमुख आचार्य और महान तंत्राचार्य माने जाते हैं।
प्रमुख आधार ग्रंथ:
यह ग्रंथ उत्पलदेव द्वारा रचित ईश्वरप्रत्यभिज्ञा सूत्र (ईश्वर को पुनः पहचानने का सिद्धांत) की टीका है।
इसमें उद्योतकर के विचारों की पुष्टि और विस्तार किया गया है।
भाषा और शैली:
यह ग्रंथ संस्कृत में लिखा गया है।
इसकी शैली दार्शनिक और तर्कपूर्ण है, जिसमें शास्त्रार्थ, तात्त्विक विवेचन, और गहन विश्लेषण शामिल हैं।
ईश्वरप्रत्यभिज्ञा दर्शन का सार
"ईश्वर" का तात्त्विक स्वरूप
इस दर्शन के अनुसार, "ईश्वर" या "शिव" सृष्टि के एकमात्र आधार हैं।
ईश्वर का वास्तविक स्वरूप चेतना है, जो स्वयं प्रकाशमान है और सभी वस्तुओं का अनुभवकर्ता है।
ईश्वर का अस्तित्व प्रत्येक जीव में विद्यमान है, लेकिन यह अज्ञान (अविद्या) के कारण ढका हुआ रहता है।
"प्रत्यभिज्ञा" (पुनः पहचान)
"प्रत्यभिज्ञा" का अर्थ है "पुनः पहचान"।
इस दर्शन का मुख्य उद्देश्य यह बताना है कि आत्मा, शिव (ईश्वर) का ही रूप है।
"पुनः पहचान" का अर्थ है अपने भीतर छिपे हुए शिवत्व का साक्षात्कार करना।
मायावाद का खंडन
यह दर्शन "अद्वैत वेदांत" के मायावाद को खारिज करता है।
इसके अनुसार, यह संसार "मिथ्या" नहीं है, बल्कि यह ईश्वर (शिव) की वास्तविक अभिव्यक्ति है।
शिव ने स्वयं अपनी शक्ति (शक्ति तत्त्व) के माध्यम से इस सृष्टि की रचना की है।
ग्रंथ में मुख्य विचार और गूढ़ रहस्य
1. शिव और शक्ति का अभिन्न संबंध
अभिनवगुप्त ने शिव और शक्ति को एक ही चेतना के दो रूप बताया।
शिव निष्क्रिय और अचल (static) है, जबकि शक्ति सृजनशील और गतिशील (dynamic) है।
शिव और शक्ति का यह संबंध ही सृष्टि का कारण है।
2. आत्मा और ईश्वर का एकत्व
आत्मा और शिव (ईश्वर) में कोई भेद नहीं है।
आत्मा जब अज्ञान के आवरण को हटाकर अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानती है, तब वह शिव का साक्षात्कार करती है।
3. त्रिक सिद्धांत
इस ग्रंथ में त्रिक दर्शन (शिव, शक्ति, और आत्मा के त्रिक स्वरूप) की विस्तृत व्याख्या की गई है।
त्रिक सिद्धांत के अनुसार:
शिव (परम चेतना)
शक्ति (चेतना की सृजनात्मक शक्ति)
आत्मा (शिव का प्रतिबिंब)
इन तीनों का संबंध सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति, और लय के लिए जिम्मेदार है।
4. सृष्टि का तात्त्विक दृष्टिकोण
सृष्टि ईश्वर की अभिव्यक्ति है।
यह सृष्टि "स्वतंत्रता" (स्वातंत्र्य) के सिद्धांत पर आधारित है।
शिव ने अपनी इच्छा (इच्छाशक्ति), ज्ञान (ज्ञानशक्ति), और क्रिया (क्रियाशक्ति) के माध्यम से सृष्टि का निर्माण किया।
5. पांच कंचुक और अज्ञान का रहस्य
आत्मा अपने असली स्वरूप (शिवत्व) को क्यों नहीं पहचानती?
अभिनवगुप्त ने इसका उत्तर पाँच "कंचुकों" (आवरणों) के माध्यम से दिया है।
ये कंचुक हैं:
काल (समय)
नियति (नियति या भाग्य)
राग (आसक्ति)
विद्या (सीमित ज्ञान)
कला (सीमित क्षमता)
ये आवरण आत्मा को सीमित कर देते हैं और उसे अपने शिव स्वरूप से विमुख कर देते हैं।
6. प्रत्यभिज्ञा का मार्ग
आत्मा शिव का साक्षात्कार कैसे कर सकती है?
इसके लिए "प्रत्यभिज्ञा" या पुनः पहचान का मार्ग अपनाना पड़ता है।
इस प्रक्रिया में आत्मा अज्ञान के आवरण को हटाकर अपनी वास्तविकता का साक्षात्कार करती है।
यह मार्ग ध्यान, आत्मचिंतन, और शिव की कृपा से संभव है।
ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी की विशिष्टताएँ
दार्शनिक गहराई:
यह ग्रंथ केवल धार्मिक विचारों तक सीमित नहीं है; इसमें तात्त्विक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से शिव के स्वरूप और सृष्टि के रहस्यों को समझाया गया है।
तर्क और शास्त्रार्थ:
अभिनवगुप्त ने दार्शनिक तर्कों और शास्त्रार्थ के माध्यम से अद्वैत वेदांत और अन्य दर्शनों के सिद्धांतों का खंडन किया है।
व्यक्तिगत अनुभव पर जोर:
इस दर्शन में व्यक्ति के व्यक्तिगत अनुभव को प्रधानता दी गई है।
आत्मा का शिव के साथ संबंध केवल तर्क से नहीं, बल्कि अनुभव और साक्षात्कार से स्थापित होता है।
आध्यात्मिक स्वतंत्रता:
इस ग्रंथ का मुख्य संदेश है कि आत्मा शिव के समान स्वतंत्र (स्वतंत्रता) है।
अज्ञान से मुक्त होकर यह स्वतंत्रता प्राप्त की जा सकती है।
ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी का प्रभाव और महत्व
कश्मीर शैव दर्शन का मूल ग्रंथ:
यह ग्रंथ कश्मीर शैव दर्शन के प्रमुख सिद्धांतों को समझने के लिए सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है।
भारतीय दर्शन में योगदान:
इसने भारतीय दार्शनिक परंपरा को एक नई दिशा दी, जिसमें सृष्टि और आत्मा को सकारात्मक दृष्टिकोण से देखा गया।
आध्यात्मिक साधना का मार्गदर्शक:
यह ग्रंथ साधकों को आत्मा और शिव के एकत्व का अनुभव करने के लिए मार्गदर्शन करता है।
दर्शन और तंत्र का समन्वय:
इस ग्रंथ में दर्शन और तंत्र के बीच संतुलन स्थापित किया गया है।
ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी कश्मीर शैव दर्शन का एक अद्वितीय और दार्शनिक रूप से गहन ग्रंथ है। इसमें अभिनवगुप्त ने "ईश्वर को पहचानने" (प्रत्यभिज्ञा) के सिद्धांत को गहराई से व्याख्यायित किया है। यह ग्रंथ आत्मा, शिव, और ब्रह्मांड के बीच के रहस्यमय संबंधों को उजागर करता है। इसके माध्यम से, व्यक्ति अपने भीतर के ईश्वर को पहचानकर आत्मज्ञान प्राप्त कर सकता है।
नीचे ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी के गूढ़ रहस्यों की विस्तृत व्याख्या दी गई है:
1. प्रत्यभिज्ञा (Recognizing Again) का रहस्य
प्रत्यभिज्ञा का अर्थ है "पुनः पहचानना"।
यह दर्शन यह मानता है कि आत्मा और शिव (ईश्वर) एक ही हैं।
आत्मा अपनी वास्तविकता (शिवत्व) को भूल चुकी है, और "प्रत्यभिज्ञा" के माध्यम से वह इसे फिर से पहचान सकती है।
यह पहचान बाहरी साधनों से नहीं, बल्कि आत्मा के भीतर के गहरे चिंतन और अनुभव से होती है।
कैसे होती है प्रत्यभिज्ञा?
ज्ञान का जागरण:
आत्मा को अज्ञान (अविद्या) के आवरण से मुक्त करना।
शिव का साक्षात्कार:
व्यक्ति अपने भीतर शिवत्व को अनुभव करता है।
स्वतंत्रता का अनुभव:
यह अनुभव आत्मा को संसार के बंधनों से मुक्त कर देता है।
2. शिव और शक्ति का अद्वैत (Non-Duality)
इस दर्शन का एक गूढ़ रहस्य यह है कि शिव और शक्ति अलग नहीं हैं।
शिव ब्रह्मांड की चेतना का स्थायी पक्ष है।
शक्ति वही चेतना है, जो सृजन, स्थिति, और संहार करती है।
शिव और शक्ति के बीच यह अभिन्नता सृष्टि के रहस्यों को समझने का मार्ग है।
शिव शुद्ध चैतन्य (Pure Consciousness) हैं, जबकि शक्ति उसकी क्रियात्मक शक्ति है।
गूढ़ रहस्य:
जब आत्मा शक्ति का अनुभव करती है, तो वह शिव को पहचान लेती है।
सृष्टि का हर कार्य शिव और शक्ति की अभिव्यक्ति है।
3. स्वतंत्रता (स्वातंत्र्य) का रहस्य
कश्मीर शैव दर्शन का मुख्य सिद्धांत है स्वातंत्र्य (Absolute Freedom)।
शिव की सबसे बड़ी शक्ति उनकी स्वतंत्रता है।
शिव के पास सृष्टि, स्थिति, और संहार करने की पूर्ण स्वतंत्रता है।
यह स्वतंत्रता हर जीव में विद्यमान है, लेकिन अज्ञान के कारण छिपी हुई है।
जब आत्मा इस स्वतंत्रता को पहचानती है, तो वह शिव के समान हो जाती है।
स्वातंत्र्य और मानव:
मनुष्य अपने विचारों और कर्मों में स्वतंत्र है।
यही स्वतंत्रता उसे ईश्वरत्व प्राप्त करने में सहायक बनती है।
4. सृष्टि का रहस्य: शिव का खेल (लीला)
सृष्टि शिव की लीला है।
शिव ने सृष्टि का निर्माण अपने आनंद के लिए किया है।
यह सृष्टि शिव की चेतना का विस्तार है।
सृष्टि का हर तत्व शिव का ही प्रतिबिंब है।
गूढ़ रहस्य:
सृष्टि का उद्देश्य आत्मा को उसकी वास्तविकता (शिवत्व) की ओर लौटाना है।
जब व्यक्ति सृष्टि को शिव की अभिव्यक्ति के रूप में देखता है, तो वह बंधनों से मुक्त हो जाता है।
5. पाँच कंचुक (आवरण) का रहस्य
आत्मा शिव के समान है, लेकिन वह पाँच "कंचुक" (आवरणों) से ढकी हुई है।
ये आवरण आत्मा को सीमित और बंधन में बाँधते हैं।
इन कंचुकों को हटाने से आत्मा अपने शिव स्वरूप को पहचान सकती है।
पाँच कंचुक:
काल: समय का आवरण, जो अनंत चेतना को सीमित करता है।
नियति: भाग्य या नियम, जो आत्मा को स्वतंत्रता से रोकता है।
राग: आसक्ति, जो व्यक्ति को सांसारिक चीजों में बाँधती है।
विद्या: सीमित ज्ञान, जो पूर्णता को छिपा देता है।
कला: सीमित क्षमता, जो आत्मा को उसकी पूर्णता से रोकती है।
गूढ़ रहस्य:
जब आत्मा इन आवरणों को पार कर लेती है, तो वह अपने शिवत्व को पहचान लेती है।
6. अनुभव (अपरोक्षता) का रहस्य
ईश्वरप्रत्यभिज्ञा में जोर दिया गया है कि शिव का साक्षात्कार केवल तर्क और ज्ञान से संभव नहीं है।
यह अनुभव का विषय है।
यह अनुभव साधना, ध्यान, और आत्मचिंतन के माध्यम से होता है।
जब व्यक्ति स्वयं को शिव के रूप में अनुभव करता है, तो वह मुक्ति प्राप्त करता है।
अपरोक्ष अनुभव का महत्व:
शिव का अनुभव प्रत्यक्ष (Direct) है, न कि किसी बाहरी साधन से।
यह अनुभव व्यक्ति के भीतर एक गहन परिवर्तन लाता है।
7. त्रिक दर्शन का रहस्य
ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी में त्रिक दर्शन की गूढ़ व्याख्या की गई है।
त्रिक दर्शन के तीन मुख्य तत्त्व हैं:
शिव (चेतना का शुद्ध रूप)
शक्ति (सृजनात्मक ऊर्जा)
आत्मा (शिव का प्रतिबिंब)
त्रिक और मानव जीवन:
प्रत्येक जीव त्रिक के माध्यम से शिव से जुड़ा हुआ है।
त्रिक का अनुभव आत्मा को उसके स्रोत (शिव) तक पहुँचाने में मदद करता है।
8. संसार (जगत) का रहस्य
कश्मीर शैव दर्शन के अनुसार, संसार "मिथ्या" नहीं है।
यह शिव की शक्ति का विस्तार है।
संसार का हर अनुभव शिव तक पहुँचने का साधन है।
इस दृष्टिकोण से, संसार से भागने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि इसे शिव के खेल के रूप में देखना चाहिए।
गूढ़ रहस्य:
जब व्यक्ति संसार को शिव के रूप में देखता है, तो उसे बंधनों से मुक्ति मिल जाती है।
9. शिव की कृपा का रहस्य
आत्मा का शिव से पुनः मिलन शिव की कृपा से ही संभव है।
यह कृपा ध्यान, साधना, और ज्ञान के माध्यम से प्राप्त होती है।
शिव की कृपा हर आत्मा में विद्यमान है, और इसे पहचानना ही प्रत्यभिज्ञा का लक्ष्य है।
10. अद्वैत और साकारता का समन्वय
कश्मीर शैव दर्शन अद्वैत (Non-Dualism) को मानता है, लेकिन यह सृष्टि और शिव के बीच भेद को खारिज करता है।
यह दर्शन कहता है कि शिव ही साकार और निराकार, दोनों रूपों में विद्यमान हैं।
सृष्टि की हर वस्तु शिव का ही रूप है।
गूढ़ रहस्य:
व्यक्ति जब हर वस्तु को शिव के रूप में देखता है, तो उसे सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है।
ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी आत्मा, शिव, और सृष्टि के गहरे रहस्यों को उजागर करती है। इसका मुख्य संदेश यह है कि आत्मा और शिव में कोई भेद नहीं है। अज्ञान और आवरण के कारण आत्मा अपने शिवत्व को भूल गई है। प्रत्यभिज्ञा के माध्यम से, आत्मा इस भुलावे से मुक्त हो सकती है और अपनी वास्तविकता को पहचान सकती है।
इस ग्रंथ के गूढ़ रहस्य यह बताते हैं कि सृष्टि, आत्मा, और शिव एक ही चेतना के विभिन्न रूप हैं। यह ग्रंथ न केवल दार्शनिक है, बल्कि आध्यात्मिक साधकों के लिए आत्मा के उच्चतम लक्ष्य को प्राप्त करने का मार्गदर्शक भी है।
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