ख़ालिक हूँ मैं, सिकसता तेरा
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11/25/20251 मिनट पढ़ें
ख़ालिक हूँ मैं, सिकसता तेरा,
ख़ालिक हूँ मैं, सिकसता तेरा,
हो दे दीदार — उमीदगार, बेकरार जीव है मेरा।
ख़ालिक हूँ मैं, सिकसता तेरा…
आवल–आख़िर इलाह —
आदम, फ़रिश्ता, बंदा; हाजी-बंदा।
जिसकी पनाह पीर–पैग़म्बर,
माहे गरीब का गंदा।
ख़ालिक हूँ मैं, सिकसता तेरा,
हो दे दीदार — उमीदगार, बेकरार जीव है मेरा।
तू हाज़िर–हज़ूर जोगी,
और नहीं है दूजा।
जिसका इश्क़ आसरा नाहीं—
क्या नमाज़, क्या पूजा!
ख़ालिक हूँ मैं, सिकसता तेरा,
हो दे दीदार — उमीदगार, बेकरार जीव है मेरा।
नाली दोज़, हनोज़ दये-बख़्त—
कमी हो ख़िदमतगारा।
दरमांदा–दरमांदा न पावे,
कहरे दस विचारा।
ख़ालिक हूँ मैं, सिकसता तेरा,
हो दे दीदार — उमीदगार, बेकरार जीव है मेरा।
💠 गहरी आध्यात्मिक व्याख्या — पंक्ति दर पंक्ति
1️ “खालिक हूँ मैं सिकसता तेरा,
हो दे दीदार, उम्मीदगार, बेकरार जीव है मेरा”**
अर्थ:
ख़ालिक = सृष्टिकर्ता
सिकसता = व्याकुल, तड़पता हुआ
दीदार = दर्शन
उम्मीदगार = आशावान
यहाँ जीव अपने ईश्वर से कह रहा है:
“हे सृष्टिकर्ता! मैं तेरा ही हूँ, पर तेरे दर्शन के लिए व्याकुल हूँ। मेरा मन तन्हा, बेचैन, निरंतर तुझसे मिलने की आशा में है।”
यह पंक्ति आध्यात्मिक तड़प (Divine longing) का प्रतीक है—जैसे कोई नदी समुद्र में मिलने को उतावली हो।
2️ “आवल आखिर इलाह, आदम फ़रिश्ता बंदा हाजी बंदा”
अर्थ:
ईश्वर ही पहला (आवल) और अंतिम (आख़िर) है।
वही आदम जैसा इंसान, फ़रिश्ता जैसा पवित्र, हाजी जैसा भक्त, और बंदा (जीव)—सब जगह वही है।
यहाँ रहस्य यह है:
ईश्वर ही सब रूपों में व्याप्त है—सृष्टि का आरंभ भी वही और अंत भी वही।
यह अद्वैत सत्य बताता है:
“सबमें वही एक है—रोशन भी वही, परछाई भी वही।”
3️ “जिसकी पनाह पीर पैगंबर, माहै गरीब के गंदा”
“पीर” और “पैगंबर”—दोनों ही उसका सहारा हैं।
और ईश्वर विशेषकर गरीब, दुखी, लाचार का संरक्षक है।
जिसे दुनिया तुच्छ या ‘गंदा’ कहे, ईश्वर उसे अपने सबसे करीब रखता है।
यह संदेश बताता है:
ईश्वर का घर नम्रता से चलता है, अहंकार से नहीं।
4️ “तू हाज़िर हज़ूर जोगी, और नहीं है दूजा।”
यहाँ जीव कह रहा है:
“हे भगवान! तू सर्वव्यापी है, तू ही यथार्थ है।
तेरे सिवा कोई दूसरा नहीं।”
यह एकत्व (Oneness) का सिद्धांत है—जैसे:
अद्वैत वेदांत कहे: ब्रह्म ही सत्य है।
सूफी कहे: ला मौजूद इल्लल्लाह (अल्लाह के सिवा कुछ नहीं)।
5️ “जिसका इश्क आसरा नाही, क्या नमाज़ क्या पूजा।”
यहाँ भजन का सबसे बड़ा आध्यात्मिक रहस्य है:
यदि दिल में प्रेम नहीं, तो पूजा और नमाज़ का कोई अर्थ नहीं।
ईश्वर तक पहुँचने का असली मार्ग है:
प्रेम
करुणा
समर्पण
तड़प
आंतरिक भक्ति
रोबोटिक धार्मिक क्रिया से आत्मा नहीं जगती।
परन्तु एक प्रेम-भरा आह्वान—सीधे ईश्वर तक पहुँचता है।
6️ “नाली दोज हनोज दये बख़्त, कमी हो खिदमतगारा।”
अर्थ:
“नरक हो या जन्नत, सब उसी की व्यवस्था है।
और जिसने उसकी सेवा (खिदमत) में कमी कर दी, वह अपना भाग्य खो देता है।”
यह याद दिलाता है:
ईश्वर से दूरी हमारे कर्मों से बनती है।
निकटता हमारे प्रेम और सेवा से।
7️ दर्मान्दा दर्मान्द न पावे, कहरे दस विचारा।”
“दर्मान्दा” = असहाय, टूटा हुआ
“कहर” = ईश्वर का क्रोध
“विचारा” = बेचारा, दुखी
अर्थ:
जिस पर ईश्वर की कृपा बरसती है, उस पर कोई विपत्ति टिक नहीं सकती।
और जिसके कर्म ठीक न हों, उसे स्वयं ही अपने बोझ का परिणाम भुगतना पड़ता है।
यह कर्म, भाग्य, और कृपा—तीनों को जोड़ता है।
💠 सार (Essence)
यह पूरा भजन एक अंतर्मन की पुकार है—जहाँ जीव कहता है:
मैं तेरा हूँ।
तुझसे मिलने की तड़प ही मेरी पूजा है।
तू सबमें है—पहले भी, बाद में भी।
तेरे बिना सब खाली है।
प्रार्थना और पूजा की असली आत्मा सिर्फ प्रेम है।
यह भजन मनुष्य और परमात्मा के बीच जन्म लेने वाली आध्यात्मिक बेचैनी का काव्य है—
जिसे सूफी कहते हैं इश्क़-ए-हक़ीकी,
भक्त कहते हैं परमप्रेम,
और योगी कहते हैं परम समर्पण ।
🌙 “दीदार-ए-ख़ालिक” — एक लंबी सूफ़ियाना दास्तान
— इश्क़ की चिंगारी
पहाड़ों के बीच बसा गाँव ‘नूरपुर’ छोटा-सा था, लेकिन उसकी फिज़ाओं में एक अनकहा दर्द रमता था।
उसी गाँव में जन्मा रूहान, एक ऐसा लड़का जिसका दिल दुनिया नहीं, बस मालिक को चाहता था।
लोग खेतों में मेहनत करते थे, बाज़ार में सौदे करते थे, शादी-ब्याह, झगड़े-फसाद में लगे रहते थे—
पर रूहान? वो हर शाम पहाड़ी की चोटी पर जाकर आसमान से बात करता। उसके होंठों पर एक ही ज़िक्र—
“ख़ालिक…
तेरी तलाश ने मुझे बेचैन कर दिया है।
मैं तेरे दीदार का भूखा हूँ…”
गाँव वाले हँसकर जाते—“ये लड़का तो सूफियों की तरह पागल हो गया!” पर हर इश्क़ करने वाला दुनिया को पागल ही लगता है।
— फकीर की आवाज़
एक शाम…ठंडी हवा चल रही थी। पहाड़ी के रास्ते पर धूल उड़ी और उसमें से एक फकीर आता दिखा।
सफेद चोला, लकड़ी की छड़ी, आँखों में सदियों का नूर।
वो मुस्कुराया—
“ओ आशिके-देवाना…
किसके दीदार की घुलन में बैठा है यूँ?”
रूहान ने काँपती आवाज़ में कहा—
“मौलाना…
मैं उस ‘एक’ का दीदार चाहता हूँ
जिसके बिना मेरी रूह अधूरी है।
वो जिसको ना मस्जिद में पाया,
ना मंदिर में,
ना जंगलों में…”
फकीर हँसा—
“दीदार आसमान में नहीं मिलता बच्चे…
इश्क़ में मिलता है।”
रूहान ने हैरानी से पूछा—“लेकिन मौलाना, वो मुझे दिखता क्यों नहीं?”
फकीर ने गंभीर आवाज़ में कहा—
“क्योंकि तूने अभी दुनिया का दर्द नहीं देखा।
ख़ालिक मासूम आँखों में बसता है,
रोते दिलों में,
और टूटे हुए बदन में।
तू उन्हें छूकर देख,
वो तुझे दिख जाएगा।”
— मलामती राह
अब रूहान बदल गया। बाज़ार में अगर कोई गिरता—वो उठाता। किसी के घर में आटा नहीं—वो बाँट आता। किसी बूढ़े को सहारा चाहिए—वो कंधा देता। गाँव में चर्चा फैल गई— “ये लड़का रहस्य है…
ये इंसान है या कोई फकीर का परछाँव?” उसकी माँ कहती—“बेटा, अपनी जिंदगी भी देख।”
रूहान मुस्कुराता—
“अम्मी…
जिसने मुझे बनाया,
मैं उसी का हूँ।
बाकी सब किराये का है।”
— इम्तिहान की रात
एक रात आसमान काला हो गया। तेज़ आँधी, बिजली और मूसलाधार बारिश ने गाँव को निगल लिया।
लोग चीखने लगे। परिवार बिखरने लगे। पानी हर घर में घुस गया। और रूहान? वो एक हाथ में लालटेन लिए, दूसरे हाथ से डूबते लोगों को बचाता फिर रहा था। किसी बच्चे को कंधे पर उठाता, किसी घायल को पीठ पर बाँधता, किसी बुज़ुर्ग की हथेलियाँ पकड़कर खींचता।
हर बार उसके दिल से एक ही आवाज़ उठती—
“ए मेरे मालिक…
तू तो कहता था तेरा दीदार दर्द में मिलता है…
मैं आया हूँ,
दिख तो जा!”
— दीदार की किरन
सुबह हुई। तूफ़ान थम गया। लोग थककर ज़मीन पर बैठ गए। पर जब उन्होंने ऊपर देखा…
रूहान हर उस शख़्स के बीच खड़ा था
जिसे उसने बचाया था।
लोग रोते हुए बोले— “बेटा, तू रात का फरिश्ता था। तूने हमें मौत से निकाला है!” रूहान वहीं मिट्टी में बैठ गया। उसकी साँसें भारी थीं, कपड़े फटे हुए थे, बदन पर घाव थे। उसने आसमान की ओर देखा।
अचानक…
एक रौशनी उसके भीतर चली गई।
कोई आवाज़ आई—
“रूहान…
तू मुझे बाहर ढूँढ़ता था।
मैं तो इन भूखे चेहरों में था।
इन बची हुई जानों में था।
तूने आज मुझे छू लिया…
आज तूने मेरा दीदार कर लिया।”
रूहान की आँखों से आँसू बह निकले। उसकी रूह हल्की हो गई। उसे लगा वह मालिक से बात कर रहा है।
— फकीर की आख़िरी सीख
अगली शाम फकीर फिर पहाड़ी पर आया। रूहान शांत बैठा था—एक नई रोशनी, एक नई मुस्कान उसके चेहरे पर थी।
फकीर ने पूछा— “बता बच्चे…
अब दीदार समझ में आया?”
रूहान ने धीमे से कहा—
“मौलाना…
मालिक नमाज़ और पूजा में नहीं,
भूखे पेट में है…
रोते चेहरे में है…
और टूटी आत्माओं में है।
मैंने आज उसे पा लिया।”
फकीर ने दुआ करते हुए कहा—
“इश्क़ की चार मंज़िलें होती हैं—
तड़प, तलाश, सेवा और… दीदार।
तू आख़िरी मंज़िल पर पहुँच गया है, ऐ रूहान।”
— दास्तान का अंत
उस दिन के बाद रूहान गाँव में नहीं, लोगों के दिलों में रहने लगा। वो चल रहा था…
पर उसके कदमों से रोशनी झर रही थी। कभी किसी अनाथ के सिर पर हाथ रखता,
कभी किसी गरीब को खाना देता, कभी किसी बीमार को दवा।
लोग कहते—“ये लड़का तो इंसान नहीं, इश्क़ का नूर है।” और रूहान हर रात वही फुसफुसाता—
“ए मेरे ख़ालिक…
अब मुझे आसमान नहीं देखना।
तू तो हर धड़कन में है।”
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