मन फूला फूला फिरे, जगत में कैसा नाता रे

BLOG

12/14/20251 मिनट पढ़ें

मन फूला फूला फिरे, जगत में कैसा नाता रे

मन फूला फूला फिरे, जगत में कैसा नाता रे ॥
मन फूला फूला फिरे, जगत में कैसा नाता रे ॥

माता कहे यह पुत्र हमारा, बहन कहे वीर मेरा,
भाई कहे यह भुजा हमारी, नारी कहे नर मेरा,
मन फूला फूला फिरे, जगत में कैसा नाता रे ॥

पेट पकड़ के माता रोवे, बाँह पकड़ के भाई,
लिपट-झपट के तिरिया रोवे, हंस अकेला जाए,
मन फूला फूला फिरे, जगत में कैसा नाता रे ॥

जब तक जीवे माता रोवे, बहन रोवे दस मास,
तेरह दिन तक तिरिया रोवे, फिर करे घर वास,
मन फूला फूला फिरे, जगत में कैसा नाता रे ॥

चार जना मिल गाड़ी बनाई, चढ़ा काठ की घोड़ी,
चार कोने आग लगाई, फूँक दियो जस होरी,
मन फूला फूला फिरे, जगत में कैसा नाता रे ॥

हाड़ जले जस लकड़ी रे, केश जले जस घास,
सोना जैसी काया जल गई, कोई न आयो पास,
मन फूला फूला फिरे, जगत में कैसा नाता रे ॥

घर की तिरिया ढूँढन लागी, ढूँढी फिरि चहुँ देशा,
कहत कबीर सुनो भई साधो, छोड़ो जगत की आशा,
मन फूला फूला फिरे, जगत में कैसा नाता रे ॥

मन फूला फूला फिरे, जगत में कैसा नाता रे ॥
मन फूला फूला फिरे, जगत में कैसा नाता रे ॥

मन फूला फूला फिरे — कबीर का निर्गुण दर्शन

मुखड़ा

मन फूला फूला फिरे, जगत में कैसा नाता रे

यहाँ मन अहंकार का प्रतीक है।
“फूला फूला” यानी — अपने संबंधों, पहचान और अधिकारों पर इतराता हुआ।
कबीर प्रश्न करते हैं:

जिस जगत में सब नाते क्षणभंगुर हैं, वहाँ यह गर्व कैसा?

निर्गुण दृष्टि में संबंध देह से जुड़े हैं, और देह स्वयं अस्थायी है।

1. संबंधों की घोषणा — लेकिन स्वार्थपूर्ण

माता कहे यह पुत्र हमारा… नारी कहे नर मेरा

कबीर बताते हैं कि हर रिश्ता ‘मेरा’ शब्द से जुड़ा है।
यह प्रेम नहीं — अधिकार है।
जब तक देह उपयोगी है, तब तक रिश्ता जीवित है।

निर्गुण दर्शन कहता है: जहाँ ‘मेरा’ है, वहाँ माया है।

2. मृत्यु का क्षण — अकेले जाना

लिपट-झपट के तिरिया रोवे, हंस अकेला जाए

‘हंस’ यहाँ आत्मा है।
शरीर के चारों ओर रोने वाले बहुत हैं, पर आत्मा को कोई साथ नहीं देता।

कबीर का स्पष्ट संकेत: न जन्म में कोई साथ आया, न मृत्यु में कोई जाएगा।

3. शोक भी सीमित है

तेरह दिन तक तिरिया रोवे, फिर करे घर वास

दुख भी समयबद्ध है।
जगत की करुणा भी अनुशासन में बंधी है।
रिवाज पूरे होते ही जीवन फिर चल पड़ता है।

निर्गुण सत्य: जो प्रेम समय से बंधा हो, वह सत्य नहीं।

4. देह का अंत — भ्रम का अंत

चार जना मिल गाड़ी बनाई… फूँक दियो जस होरी

यहाँ श्मशान-वर्णन अत्यंत निर्मम है।
कबीर दिखाते हैं कि जिस देह को जीवन भर सजाया,
वही लकड़ी की तरह जला दी जाती है।

निर्गुण चेतावनी: देह को आत्मा समझना सबसे बड़ा भ्रम है।

5. सौंदर्य का विनाश

सोना जैसी काया जल गई, कोई न आयो पास

रूप, यौवन, पहचान — सब राख।
जब सत्य सामने आता है, तो कोई पास नहीं खड़ा होता।

कबीर कहते हैं: सत्य में प्रवेश अकेले होता है।

6. जगत की निरर्थक खोज

घर की तिरिया ढूँढन लागी, ढूँढी फिरि चहुँ देशा

यह अज्ञान का प्रतीक है।
जिसे खोजा जा रहा है, वह पहले ही रूप बदल चुका है।

निर्गुण दृष्टि: जिसे पाया जा सकता है, वह नश्वर है।

7. कबीर का उपदेश

छोड़ो जगत की आशा

यह निराशा नहीं — बोध है।
कबीर संसार त्यागने को नहीं कहते, बल्कि आसक्ति त्यागने को कहते हैं।

निर्गुण मार्ग:

  • नाम में रहो

  • साक्षी बनो

  • माया से मुक्त रहो

सार — कबीर का निर्गुण निष्कर्ष

जगत में नाता नहीं,
नाता केवल सत्य से है।
देह जाएगी, नाम बचेगा।
जो आज समझ गया — वही मुक्त हुआ।

हंस का अकेला सफ़र

एक समय की बात है। एक बंजारा था — नाम किसी ने नहीं पूछा, क्योंकि वह हर रिश्ते में किसी का था।

माँ उसे “मेरा बेटा” कहकर पुकारती, बहन उसे “मेरा भाई” कहकर बाँधती, पत्नी उसे “मेरा जीवन” कहकर थामे रहती। और वह — इन शब्दों में फूलता-फूलता फिरता था। एक दिन उसने एक संत से पूछा:
“महाराज, मैंने सबके लिए जिया है, फिर भीतर यह खालीपन क्यों है?” संत मुस्कराए। उन्होंने एक पिंजरा दिखाया, जिसमें एक हंस बैठा था। संत बोले —“जब पिंजरा टूटेगा, कौन रोएगा? और कौन जाएगा?” बंजारा समझ न पाया।

पिंजरे का टूटना

कुछ वर्षों बाद, एक सुबह वह गिर पड़ा। माँ उसके पेट से लिपटकर रोई, भाई उसकी बाँह थामे खड़ा रहा,
पत्नी उसकी छाती से चिपक गई। घर शोर से भर गया। पर उसी क्षण — उसके भीतर का हंस चुपचाप पंख फैलाने लगा। कोई उसे देख न सका।

तेरह दिनों का दुःख

तेरह दिन तक आँगन रोया। चौदहवें दिन चूल्हा जला, जीवन फिर चल पड़ा। जिस देह को चंदन लगाया गया था, वह लकड़ी बनकर आग में चली गई। बाल घास बने, हाड़ लकड़ी। और हंस —अकेला उड़ गया।

खोज

रात को पत्नी को सपना आया। वह चारों दिशाओं में खोजती रही — “कहाँ गए तुम?” एक आवाज़ आई:
“जिसे तुम खोज रही हो, वह कभी तुम्हारा था ही नहीं।” वह घबरा गई।

रहस्य का उद्घाटन

उसी संत के पास वह पहुँची। संत बोले —“तुमने पिंजरे से प्रेम किया, हंस को जाना ही नहीं।” “तो हंस कहाँ है?” उसने पूछा। संत ने आकाश की ओर देखा। “जहाँ मेरा समाप्त होता है, वहीं से हंस का देश शुरू होता है।”

अंतिम बोध (कबीर की वाणी)

नाता देह से था, आत्मा से नहीं। जो समझ गया — वही जाग गया। बाकी सब मन फूला-फूला फिरते रहे।