साधौ भजन भेद है न्यारा, कोए जानेगा जानन हारा
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10/15/20251 मिनट पढ़ें
साधौ भजन भेद है न्यारा, कोए जानेगा जानन हारा |
साधौ भजन भेद है न्यारा, कोए जानेगा जानन हारा ||
क्या माला मुद्रा को पहनै, चन्दन घिसै लिसारा |
क्या माला मुद्रा को पहनै, चन्दन घिसै लिसारा |
मुंड मडायै जटा राखायै, अंग लगाये धारा ||1||
साधौ भजन भेद है न्यारा, कोए जानेगा जानन हारा |
साधौ भजन भेद है न्यारा, कोए जानेगा जानन हारा ||
क्या पानी पावन को पूजै, कन्दमूल फल हारा |
क्या पानी पावन को पूजै, कन्दमूल फल हारा |
क्या नित तीर्थ व्रत करता, क्यों नहीं तत्व विचारा||2||
साधौ भजन भेद है न्यारा, कोए जानेगा जानन हारा |
साधौ भजन भेद है न्यारा, कोए जानेगा जानन हारा ||
क्या गायै, क्या पढ़ दिखलाए, क्या भ्रम में संसारा |
क्या गायै, क्या पढ़ दिखलाए, क्या भ्रम में संसारा ||
क्या संध्या तर्पण को किन्हे कै सठ कर्म आचारा||3||
साधौ भजन भेद है न्यारा, कोए जानेगा जानन हारा |
साधौ भजन भेद है न्यारा, कोए जानेगा जानन हारा ||
जैसे वधिक ओट टाटी कै हाथ लिये भिखचारा |
जैसे वधिक ओट टाटी कै हाथ लिये भिखचारा ||
जो वक ध्यान धरै घट भितर, अपनै अंग विकारा ||4||
साधौ भजन भेद है न्यारा, कोए जानेगा जानन हारा |
साधौ भजन भेद है न्यारा, कोए जानेगा जानन हारा ||
के प्रचे स्वामी हो बैठे, करतै विष व्यवहारा |
के प्रचे स्वामी हो बैठे, करतै विष व्यवहारा ||
ग्यान ध्यान कोए मर्म न जाने, बात करै विकारा ||5||
साधौ भजन भेद है न्यारा, कोए जानेगा जानन हारा |
साधौ भजन भेद है न्यारा, कोए जानेगा जानन हारा ||
फूकै कान कूमत अपनै से, बोझ लियै सिर भारा |
फूकै कान कूमत अपनै से, बोझ लियै सिर भारा ||
बिन सतगुरु, गुरु तक बहगये लोभ लहर की धारा ||6||
साधौ भजन भेद है न्यारा, कोए जानेगा जानन हारा |
साधौ भजन भेद है न्यारा, कोए जानेगा जानन हारा ||
बिन रघबीर पार न पावे, खण्ड अखण्ड से न्यारा ।
बिन रघबीर पार न पावे, खण्ड अखण्ड से न्यारा ॥
दृष्टि अपार तलब को सहजे , कटे भ्रम का जाला ||7||
साधौ भजन भेद है न्यारा, कोए जानेगा जानन हारा |
साधौ भजन भेद है न्यारा, कोए जानेगा जानन हारा ||
निर्मल दृष्टि आत्मा जागी , साहिब नाम आधारा ।
निर्मल दृष्टि आत्मा जागी , साहिब नाम आधारा ॥
कहे रविदास तेहि जन आवे , वै जो तजै विकारा ||8||
साधौ भजन भेद है न्यारा, कोए जानेगा जानन हारा |
साधौ भजन भेद है न्यारा, कोए जानेगा जानन हारा ||
यह भजन संत रविदास जी की दिव्य चेतना से निकला है , जो बाह्य आडंबरों से परे सच्चे भजन (अंतरात्मा की साधना) का रहस्य खोलता है।
यह भजन एक साधु से नहीं, मानव से आत्मा को संबोधित करता है , कि “यदि तू वास्तव में प्रभु से मिलना चाहता है, तो भीतर उतर।”
अब आइए इसे बहुत गहराई से, पद-दर-पद समझें — जैसे कि आप इसे ध्यान में जीवित अनुभव की तरह महसूस करें।
🕉️ मुख्य पंक्ति: साधौ भजन भेद है न्यारा
साधौ भजन भेद है न्यारा, कोए जानेगा जानन हारा।
यह पंक्ति पूरे भजन का “केन्द्रीय बीज” है।
🔹 अर्थ:
हे साधु (सत्य की खोज करने वाले मनुष्य),
भजन का वास्तविक रहस्य साधारण नहीं है।
उसका “भेद” (सच्चा अर्थ) बहुत सूक्ष्म, बहुत गूढ़ है।
केवल वही जान सकता है जिसने सत्य का अनुभव किया है ,
जिसकी आत्मा ने “नाम” का अमृत पी लिया है।
भजन कोई बाहरी कर्म या गाने का कार्य नहीं ,
भजन का अर्थ है “भाव-जपन”,
जहाँ मन, वाणी, और आत्मा एक हो जाते हैं।
🪔 पहला पद — बाहरी साधना बनाम अंतर-साधना
क्या माला मुद्रा को पहनै, चन्दन घिसै लिसारा।
मुंड मडायै, जटा राखायै, अंग लगाये धारा॥
🔹 भावार्थ:
अगर कोई व्यक्ति चन्दन लगाता है,
गले में माला पहनता है,
सिर मुंडाता है, जटा रखता है, भस्म लगाता है ,
तो क्या वही भजन है? नहीं।
ये सब बाहरी प्रतीक हैं।
इनका अर्थ तभी है जब भीतर शुद्धता और विनम्रता हो।
🔹 गहरा अर्थ:
संत रविदास जी कह रहे हैं —
मनुष्य का भजन उसकी भीतर की अवस्था से तय होता है,
न कि बाहरी सजावट से।
जैसे किसी बर्तन पर सोने की परत चढ़ा दो,
पर भीतर मैल भरा हो — तो क्या वह शुद्ध होगा?
भजन का अर्थ है अहंकार का मुंडन, वासनाओं की जटा का त्याग,
और भीतर चन्दन जैसी शीतलता का भाव।
🌿 दूसरा पद — कर्मकांड नहीं, तत्व-विचार
क्या पानी पावन को पूजै, कन्दमूल फल हारा।
क्या नित तीर्थ व्रत करता, क्यों नहीं तत्व विचारा॥
🔹 भावार्थ:
जो व्यक्ति नित्य तीर्थ-स्नान करता है,
फल-फूल, व्रत, तपस्या में लगा है ,
परंतु तत्व-विचार, यानी आत्म-ज्ञान का चिंतन नहीं करता,
वह भजन का सार नहीं समझता।
🔹 गहरा अर्थ:
भक्ति केवल बाहरी शुद्धता का नाम नहीं,
वह है मन की शुद्धता।
जो व्यक्ति हजारों बार गंगा में स्नान करे,
पर भीतर क्रोध, द्वेष, मोह भरे हों —
तो क्या वह सचमुच पवित्र है?
संत यहाँ कहते हैं —
“भजन तत्व-विचार के बिना अधूरा है।”
अर्थात, जब तक तू अपने स्वरूप (आत्मा) को नहीं जानता,
तेरा भजन केवल कर्मकांड रह जाता है।
📜 तीसरा पद — ज्ञान और कर्म में दिखावा
क्या गायै, क्या पढ़ दिखलाए, क्या भ्रम में संसारा।
क्या संध्या तर्पण को किन्हे, कै सठ कर्म आचारा॥
🔹 भावार्थ:
क्या केवल शास्त्र पढ़ने, गाने, तर्पण करने,
या संध्या करने से भजन पूरा होता है?
नहीं।
अगर यह सब अहंकार से हो ,
“मैं विद्वान हूँ, मैं धर्मी हूँ” ,
तो यह संसार के भ्रम में उलझना है।
🔹 गहरा अर्थ:
भजन श्रद्धा से नहीं, अहंकार से किया जाए तो उसका अर्थ मिट जाता है।
वाणी भजन गाए, पर हृदय में द्वेष रहे —
तो वह केवल शोर है।
सच्चा भजन मौन में गूँजता है, जब हृदय में प्रेम और समर्पण जागे।
🪞 चौथा पद — दिखावे का भिखारीपन
जैसे वधिक ओट टाटी कै, हाथ लिये भिखचारा।
जो वक ध्यान धरै घट भितर, अपनै अंग विकारा॥
🔹 भावार्थ:
कुछ लोग बाहर से साधु लगते हैं ,
कपड़ों में सादगी, हाथ में भिक्षा-पात्र ,
पर उनके भीतर वासनाओं का “वधिक” (कसाई) बैठा है।
वे बाहर से संन्यासी, भीतर से विकारी हैं।
🔹 गहरा अर्थ:
संत रविदास जी यहाँ बहुत करारी चोट करते हैं ,
कि यदि मन शुद्ध नहीं, तो बाहरी संयम व्यर्थ है।
भजन का अर्थ है भीतर की सफाई ,
जहाँ काम, क्रोध, लोभ, अहंकार, ईर्ष्या — सबका अंत हो।
सच्चा भिक्षु वह नहीं जो भिक्षा माँगे,
बल्कि वह है जो अहंकार की भिक्षा त्याग दे।
🔥 पाँचवाँ पद — झूठे स्वामी और असली साधु
के प्रचे स्वामी हो बैठे, करतै विष व्यवहारा।
ग्यान ध्यान कोए मर्म न जाने, बात करै विकारा॥
🔹 भावार्थ:
कई लोग अपने को “स्वामी” या “गुरु” कहते हैं,
पर उनका आचरण विष समान है ,
उनमें न ज्ञान है, न ध्यान, केवल बातों का दिखावा है।
🔹 गहरा अर्थ:
संत रविदास जी उस काल के पाखंडियों को इंगित करते हैं ,
जो धर्म के नाम पर अंधविश्वास और लोभ फैलाते थे।
सच्चा गुरु वह है जो अपने व्यवहार से प्रकाश फैलाए,
जिसके जीवन में नाम का तेज झलकता है।
वह गुरु नहीं जो सुनाता है,
वह गुरु जो जगाता है।
🌊 छठा पद — बिन सतगुरु सब बहक गए
फूकै कान कूमत अपनै से, बोझ लियै सिर भारा।
बिन सतगुरु, गुरु तक बहगये, लोभ लहर की धारा॥
🔹 भावार्थ:
जो अपनी कूमति (गलत समझ) से भजन करता है,
बिना सतगुरु के मार्गदर्शन के,
वह लोभ, मोह, और भ्रम की लहर में बह जाता है।
🔹 गहरा अर्थ:
सतगुरु वह है जो हमारी दृष्टि बदल देता है।
जो कहे — “देख, तू वही है जिसकी तू खोज कर रहा है।”
बिना ऐसे गुरु के, मनुष्य अंधेरे में भटकता है,
अपनी ही कल्पना के देवता बनाकर पूजता रहता है।
🌈 सातवाँ पद — परमात्मा ही पार लगाते हैं
बिन रघुबीर पार न पावे, खण्ड अखण्ड से न्यारा।
दृष्टि अपार तलब को सहजे, कटे भ्रम का जाला॥
🔹 भावार्थ:
परमात्मा (रघुबीर) की कृपा के बिना,
कोई इस संसार-सागर को पार नहीं कर सकता।
जब दृष्टि निर्मल होती है,
तब ही भ्रम का जाल कटता है।
🔹 गहरा अर्थ:
“रघुबीर” यहाँ केवल भगवान राम नहीं,
बल्कि “परम चेतना” का प्रतीक हैं।
जब मन उस चेतना में विलीन होता है ,
तो सीमित “मैं” (खण्ड) और असीम “वह” (अखण्ड) एक हो जाते हैं।
वही है भजन का उत्कर्ष बिंदु —
जहाँ गायक, गीत, और गाए जाने वाला — तीनों मिट जाते हैं।
🌺 आठवाँ पद — निर्मल दृष्टि और नाम का आधार
निर्मल दृष्टि आत्मा जागी, साहिब नाम आधारा।
कहे रविदास तेहि जन आवे, वै जो तजै विकारा॥
🔹 भावार्थ:
जब दृष्टि निर्मल हो जाती है, आत्मा जाग उठती है।
तब ‘साहिब’ (ईश्वर) का नाम उसका आधार बन जाता है।
रविदास जी कहते हैं — वही सच्चा भक्त है
जो अपने भीतर के विकारों को त्याग देता है।
🔹 गहरा अर्थ:
भजन की पराकाष्ठा यही है —
जब नाम (स्मरण) सहज श्वास बन जाता है,
मन निर्मल, दृष्टि शांत, और आत्मा जागृत हो जाती है।
तब साधक नहीं गाता — नाम स्वयं गाता है।
वह अवस्था है “निर्मल दृष्टि” ,
जहाँ देखने वाला, देखा जाने वाला, और दर्शन — सब एक हो जाते हैं।
🧘♀️ ध्यान-मनन की दिशा:
1. क्या मेरा भजन आत्मा को निर्मल करता है या अहंकार को पुष्ट?
2. क्या मैं अपने भीतर के विकारों को पहचानने की कोशिश कर रहा हूँ?
3. क्या मैं “सतगुरु” (सत्य मार्गदर्शक) की शरण में हूँ या अपने ही भ्रम में?
4. क्या मैं नाम को केवल जपता हूँ या जीता हूँ?
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