संत शिरोमणि गुरू रविदास

रैदास

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10/21/20241 मिनट पढ़ें

संत शिरोमणि गुरु रविदास

संत रविदास का जीवन एक महान संत और समाज सुधारक के रूप में अत्यंत प्रेरणादायक है। उनका जन्म 15वीं शताब्दी में वाराणसी के निकट सीर गोवर्धन गांव में एक निम्नवर्गीय परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम संतोख दास और माता का नाम करमा देवी था। रविदास जी के परिवार का व्यवसाय चमड़े का काम था, जो उस समय की सामाजिक संरचना में नीच मानी जाती थी। बावजूद इसके, रविदास ने अपने कर्म और भक्ति के माध्यम से समाज में एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया।

प्रारंभिक जीवन: रविदास जी का बचपन कठिनाइयों से भरा था, क्योंकि उस समय जाति आधारित भेदभाव और ऊंच-नीच की भावना समाज में बहुत प्रबल थी। हालांकि, रविदास जी की भक्ति और ईश्वर के प्रति अनन्य श्रद्धा ने उन्हें समाज के बंधनों से मुक्त रखा। वे बचपन से ही भगवद् भक्ति में लीन रहते थे और उन्होंने संत कबीर के मार्गदर्शन में अपनी आध्यात्मिक यात्रा प्रारंभ की।

संत रविदास का जीवन सरलता, भक्ति, और सामाजिक समानता के संदेश से भरा हुआ है। वे 15वीं शताब्दी के एक महान संत, कवि और समाज सुधारक थे, जिन्होंने समाज में व्याप्त भेदभाव और ऊँच-नीच को दूर करने के लिए अपने जीवन को समर्पित कर दिया। उनकी कई कहानियाँ प्रसिद्ध हैं, जो उनकी सरलता, भक्ति, और ईश्वर के प्रति अनन्य प्रेम को दर्शाती हैं।

संत रविदास के जीवन से जुड़ी कुछ प्रमुख कहानियाँ :

1. साधुओं के जूते बनाना

- संत रविदास एक गरीब चर्मकार (जूते बनाने वाले) के परिवार में पैदा हुए थे। एक बार कुछ साधु उनके गाँव आए और उन्होंने अपने जूते बनाने का अनुरोध किया। संत रविदास ने अत्यंत प्रेम और भक्ति से उनके जूते बनाए और किसी प्रकार का शुल्क नहीं लिया।

- साधुओं ने यह देख कर आशीर्वाद दिया और कहा, "तुम्हारी भक्ति और सेवा से ईश्वर बहुत प्रसन्न हैं।" उन्होंने रविदास की ईश्वर के प्रति भक्ति को बहुत सराहा। संत रविदास के जीवन में यह घटना दिखाती है कि सेवा और विनम्रता के माध्यम से भी ईश्वर की कृपा प्राप्त की जा सकती है।

2. गंगा में चमड़े का मटका छोड़ने की कथा

- एक दिन रविदास अपने काम के दौरान चमड़े का मटका लेकर गंगा स्नान करने पहुँचे। उस समय समाज के लोग निचली जातियों के लोगों को पवित्र गंगा में स्नान करने के लिए मना करते थे। जब संत रविदास गंगा में स्नान करने लगे, तो कुछ ब्राह्मणों ने उन्हें मना किया और कहा, "तुम गंगा के पवित्र जल को अपवित्र कर रहे हो।"

- संत रविदास ने विनम्रता से उत्तर दिया, "गंगा जल को कोई कैसे अपवित्र कर सकता है? यह तो सभी को समान रूप से शुद्ध करता है।" इस घटना ने रविदास के मन में समानता और करुणा के महत्व को और भी गहराई से प्रकट किया और उन्होंने समाज में सभी को समान दृष्टि से देखने का संदेश दिया।

 3. राजा और संत रविदास की मुलाकात

- एक बार काशी के राजा संत रविदास के बारे में सुनकर उनसे मिलने आए। राजा ने संत रविदास के विनम्र जीवन को देखकर आश्चर्य प्रकट किया और उनसे पूछा, "आप जैसे संत इतनी कठिन परिस्थिति में कैसे रह सकते हैं?"

- संत रविदास ने उत्तर दिया, "ईश्वर की भक्ति ही मेरे लिए सबसे बड़ी संपत्ति है। मुझे किसी भौतिक संपत्ति की आवश्यकता नहीं।" राजा इस उत्तर से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने संत रविदास को जीवनभर सम्मानित किया। यह घटना दर्शाती है कि संत रविदास ईश्वर-भक्ति और सादगी को ही असली धरोहर मानते थे।

4. मीराबाई और संत रविदास की भक्ति का मिलन

- संत रविदास का नाम मीराबाई के गुरु के रूप में भी आता है। कहा जाता है कि मीराबाई, जो खुद कृष्ण की भक्त थीं, संत रविदास से गहरे प्रभावित थीं और उन्हें अपना गुरु मानती थीं।

- मीराबाई ने संत रविदास से भक्ति का सही अर्थ सीखा और वे संत रविदास की शिक्षाओं का पालन करने लगीं। इस घटना से यह सिद्ध होता है कि संत रविदास की भक्ति में इतनी गहराई और शक्ति थी कि उन्होंने एक राजकुमारी को भी अपने शिष्य के रूप में स्वीकार किया।

 5. रविदास का "बेगमपुरा" का स्वप्न

- संत रविदास का "बेगमपुरा" का विचार एक ऐसी आदर्श नगरी का सपना था, जहाँ कोई दुख, शोषण, और भेदभाव न हो। उनका यह आदर्श स्थल सभी के लिए समानता, न्याय और प्रेम पर आधारित था।

- संत रविदास ने अपने भजनों में इस नगरी का वर्णन किया और कहा कि "बेगमपुरा" एक ऐसा स्थान है जहाँ सब लोग समान हैं और कोई ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं। इस आदर्श के माध्यम से उन्होंने समाज को जाति, धर्म और वर्ग के भेदभाव को छोड़कर समानता और एकता की राह पर चलने की प्रेरणा दी।

6. रविदास और उनका सच्चा सोना

- एक बार एक अमीर व्यक्ति संत रविदास के पास आया और उन्हें सोने की एक गिन्नी भेंट की। संत रविदास ने उस गिन्नी को यह कहते हुए वापस लौटा दिया कि उनका सच्चा सोना तो उनका ईश्वर-प्रेम और भक्ति है।

- संत रविदास का यह जवाब उनके सादगी और भक्ति-भावना को प्रकट करता है, और यह दर्शाता है कि उन्होंने हमेशा अपनी भक्ति और आस्था को भौतिक वस्तुओं से ऊपर माना।

7. संत रविदास और गरीब महिला की मदद

- एक दिन एक गरीब महिला संत रविदास के पास आई और अपनी गरीबी और कष्ट की कहानी सुनाई। संत रविदास ने उसे सांत्वना दी और कहा कि वह अपनी आस्था और मेहनत से हर कठिनाई को पार कर सकती है।

- संत रविदास की इस बात ने उस महिला को बहुत प्रेरित किया, और उसने कठिन परिश्रम से अपना जीवन बदल लिया। यह कहानी दिखाती है कि संत रविदास दूसरों को सिर्फ उपदेश ही नहीं देते थे, बल्कि उन्हें जीवन में बदलाव लाने के लिए प्रेरित भी करते थे।

8. भक्त की सेवा में ईश्वर का दर्शन

- एक बार एक भक्त ने संत रविदास से पूछा कि उन्हें ईश्वर का साक्षात्कार कब और कैसे हो सकता है। संत रविदास ने उत्तर दिया, "ईश्वर का साक्षात्कार उसी समय हो सकता है जब हम निस्वार्थ होकर दूसरों की सेवा करें।"

- संत रविदास ने यह संदेश दिया कि सेवा, भक्ति का सच्चा रूप है। उन्होंने अपने जीवन में भी यही सिद्धांत अपनाया और दूसरों की सेवा और सहायता के लिए हमेशा तत्पर रहे।

9. तुलसीदास से भेंट

- कुछ कथाओं के अनुसार, संत रविदास की भेंट संत तुलसीदास से भी हुई थी। तुलसीदास ने संत रविदास के साधना मार्ग का आदर किया और उनसे प्रेरणा प्राप्त की।

- तुलसीदास ने संत रविदास की सादगी और समानता के संदेश का अनुसरण किया और अपने रचनाओं में भी भक्ति और सेवा का प्रचार किया। इस भेंट से यह पता चलता है कि संत रविदास की शिक्षाओं का प्रभाव उनके समकालीन संतों पर भी पड़ा था।

संत रविदास की ये कहानियाँ उनके भक्ति, सेवा, समानता, और निस्वार्थ प्रेम के प्रति उनके दृष्टिकोण को दर्शाती हैं। उन्होंने जाति और वर्ग के भेदभाव को समाप्त करने का आह्वान किया और अपने अनुयायियों को आत्मज्ञान और सेवा के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। उनके उपदेश और विचार आज भी समाज में प्रेरणा के स्रोत हैं।

भक्ति और शिक्षा: संत रविदास को शिक्षा का विशेष अवसर नहीं मिला, लेकिन उनके अंतर्मन की आध्यात्मिक प्रज्ञा और ईश्वर भक्ति ने उन्हें एक महान संत बना दिया। उन्होंने समाज में व्याप्त अज्ञानता, अंधविश्वास और जातिवाद का कड़ा विरोध किया और यह संदेश दिया कि हर व्यक्ति समान है, चाहे उसकी जाति या समाज में कोई भी स्थिति हो। उनका भक्ति मार्ग निर्गुण ब्रह्म की उपासना पर आधारित था, जिसमें बाह्य आडंबरों और जातिगत भेदभाव का कोई स्थान नहीं था।

सामाजिक सुधारक: संत रविदास ने अपने उपदेशों के माध्यम से समाज में व्याप्त जातिवाद, भेदभाव और ऊंच-नीच की भावना का विरोध किया। वे मानते थे कि ईश्वर की भक्ति में कोई ऊंचा या नीचा नहीं होता, सभी मनुष्य समान हैं और ईश्वर की दृष्टि में सभी का महत्व एक समान है। उन्होंने समाज के शोषित और वंचित वर्ग को आत्म-सम्मान और आत्म-निर्भरता का संदेश दिया।

प्रमुख शिक्षाएं:

1. ईश्वर की एकता: संत रविदास ने अपने भजनों और पदों के माध्यम से यह संदेश दिया कि ईश्वर एक है और वह हर व्यक्ति के भीतर विद्यमान है। भक्ति का मार्ग सभी के लिए समान है।

2. जाति-पांति का विरोध: संत रविदास ने जातिगत भेदभाव और ऊंच-नीच की भावना को नकारते हुए मानवता को सबसे ऊपर रखा। उन्होंने कहा कि व्यक्ति की सच्ची पहचान उसकी आत्मा से होती है, न कि उसकी जाति या सामाजिक स्थिति से।

3. सदाचार और सत्यनिष्ठा: संत रविदास का मानना था कि सत्य और सच्चाई की राह पर चलना ही सच्चा धर्म है। उन्होंने ईमानदारी, परिश्रम और सेवा को जीवन का आदर्श बनाया।

रचनाएं: संत रविदास के उपदेश और भक्ति गीतों का संग्रह "रविदास की वाणी" के नाम से प्रसिद्ध है। उनकी रचनाएं "गुरु ग्रंथ साहिब" में भी शामिल हैं। उनकी भक्ति रचनाएं समाज में जागरूकता फैलाने और आध्यात्मिक मार्ग दिखाने का काम करती हैं।

1. "प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी"

यह रचना भक्त और भगवान के गहरे संबंध को दर्शाती है। इसमें संत रविदास ने भगवान को चंदन और अपने आप को पानी के रूप में प्रस्तुत किया है। जैसे चंदन के संपर्क में आने से पानी सुगंधित हो जाता है, वैसे ही भगवान की कृपा से भक्त का हृदय पवित्र हो जाता है। यह पद भगवान के प्रति भक्त की संपूर्ण समर्पण भावना को व्यक्त करता है, जहाँ भक्त यह मानता है कि उसका अस्तित्व तभी सार्थक है जब वह भगवान के संपर्क में आता है। यह रचना आत्मसमर्पण और ईश्वर की कृपा की महत्ता को प्रकट करती है।

भावार्थ:

यह पद यह संदेश देता है कि भक्त को अपने आप को पूरी तरह भगवान की भक्ति में समर्पित करना चाहिए। जब मनुष्य अपने अहंकार और भेदभाव को त्यागकर ईश्वर की शरण में आता है, तब वह पवित्र और दिव्य हो जाता है।

2. "जो हरि को सच्चा सेवक है"

इस रचना में संत रविदास ने सच्चे सेवक या भक्त की परिभाषा दी है। उनका कहना है कि जो व्यक्ति सच्चे अर्थों में भगवान का सेवक है, वह समाज के भेदभाव, ऊंच-नीच, जाति और वर्ग के विचारों से परे होता है। सच्चा सेवक वह है, जो सभी को समान दृष्टि से देखता है और हर किसी के साथ प्रेम और सम्मान का व्यवहार करता है। यह पद संत रविदास के समाज-सुधारक दृष्टिकोण को भी प्रकट करता है, जिसमें उन्होंने समानता और मानवता को सर्वोच्च स्थान दिया।

भावार्थ:

यह पद सामाजिक समरसता का संदेश देता है। इसमें यह स्पष्ट किया गया है कि सच्ची भक्ति का मार्ग उन सामाजिक रुकावटों से नहीं बंधा है, जो मनुष्य ने स्वयं बनाई हैं। भगवान के सच्चे सेवक के लिए सभी मनुष्य समान हैं, और भगवान की भक्ति में जाति, धर्म या वर्ग का कोई भेद नहीं होता।

3. "अवधू, माया तजि मन रे"

इस पद में संत रविदास ने माया यानी संसार के भौतिक सुखों को त्यागने का संदेश दिया है। वे बताते हैं कि संसार की मोह-माया और भौतिक चीज़ें अस्थायी हैं, और इनके मोह में पड़कर व्यक्ति भगवान से दूर हो जाता है। संत रविदास कहते हैं कि व्यक्ति को माया के बंधनों से मुक्त होकर अपने मन को भगवान की भक्ति में लगाना चाहिए, क्योंकि वही शाश्वत और सच्चा सुख है।

भावार्थ:

यह पद सांसारिक वस्तुओं और उनकी अस्थिरता पर ध्यान आकर्षित करता है। संत रविदास के अनुसार, भौतिक सुख और संपत्ति व्यक्ति को ईश्वर से भटकाते हैं। उन्होंने त्याग, ध्यान और भक्ति के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी है, जिससे व्यक्ति माया के बंधनों से मुक्त होकर ईश्वर से जुड़ सकता है।

4. "बेगमपुरा शहर का नाम"

इस रचना में संत रविदास ने एक आदर्श समाज "बेगमपुरा" की कल्पना की है। "बेगम" का अर्थ है बिना ग़म (दुःख) का स्थान, यानी एक ऐसा स्थान जहाँ कोई दुःख, दर्द, जाति-पाति, ऊंच-नीच या भेदभाव नहीं है। इस समाज में कोई व्यक्ति अमीर या गरीब नहीं है, और सभी समानता और शांति से रहते हैं। संत रविदास ने इस पद के माध्यम से एक आदर्श समाज का चित्रण किया है, जहाँ हर व्यक्ति सम्मान के साथ जीवन व्यतीत कर सकता है।

भावार्थ:

यह पद संत रविदास की समाजवादी दृष्टि को प्रकट करता है। उन्होंने एक ऐसे समाज की परिकल्पना की जहाँ सभी लोग समान हों, और जातिगत या सामाजिक असमानता का कोई स्थान न हो। "बेगमपुरा" एक प्रतीक है उस आदर्श समाज का, जहाँ कोई अन्याय या विभाजन नहीं होता, और सभी लोग भाईचारे और समानता के साथ रहते हैं।

5. "हरि बिन कछु नहीं"

इस पद में संत रविदास ने संसार की नश्वरता और भगवान की महत्ता को दर्शाया है। उन्होंने कहा कि इस संसार की कोई भी वस्तु स्थायी नहीं है, चाहे वह धन, संपत्ति, या सांसारिक सुख हो। केवल भगवान की भक्ति ही शाश्वत है। इस पद में संत रविदास ने यह संदेश दिया कि जीवन का असली उद्देश्य भगवान की भक्ति और उनके प्रति समर्पण होना चाहिए, क्योंकि केवल वही सच्चा और स्थायी सुख प्रदान कर सकते हैं।

भावार्थ:

यह रचना इस बात की ओर इशारा करती है कि सांसारिक वस्तुएं अस्थायी और क्षणिक हैं। व्यक्ति को ईश्वर की शरण में जाना चाहिए, क्योंकि ईश्वर ही एकमात्र ऐसा तत्व है जो स्थायी और सच्चा सुख प्रदान करता है।

6. "मोहि निर्गुण देहु बान"

इस पद में संत रविदास ने भगवान से प्रार्थना की है कि उन्हें ऐसा ज्ञान और दृष्टि दें जिससे वे निर्गुण (रूप और गुण से रहित) ईश्वर को प्राप्त कर सकें। संत रविदास ने निर्गुण भक्ति की महत्ता को स्पष्ट किया है, जिसमें भगवान को किसी रूप, आकार या विशेष गुणों के बिना पूजा जाता है। यह भक्ति का उच्चतम स्वरूप है, जहाँ भगवान को निराकार और सर्वव्यापी माना जाता है।

भावार्थ:

यह पद भक्त के भीतर की गहरी तड़प और ईश्वर की उपासना में समर्पण को प्रकट करता है। संत रविदास यहाँ यह कहना चाहते हैं कि सच्ची भक्ति निर्गुण ईश्वर की होती है, जो किसी भौतिक रूप में बंधी नहीं होती।

7. "अब मोहि राम गोविंद गोसाईं"

इस पद में संत रविदास ने भगवान राम और गोविंद (कृष्ण) के प्रति अपने गहरे समर्पण को प्रकट किया है। वे कहते हैं कि अब उनका मन केवल राम और गोविंद में लीन है, और संसार के अन्य सभी विषयों से मुक्त हो गया है। इस पद में उन्होंने भगवान के प्रति अपनी भक्ति को सर्वोच्च स्थान दिया है।

भावार्थ:

यह पद संत रविदास की गहन भक्ति और ध्यान की भावना को प्रकट करता है। उन्होंने अपने मन को सांसारिक चिंताओं से मुक्त कर दिया है और भगवान में अपने जीवन का सार देखा है। यह रचना भक्ति के महत्व और ध्यान की महत्ता को दर्शाती है।

8. "जाति-जाति में जाति हैं"

इस रचना में संत रविदास ने जातिवाद की कड़ी आलोचना की है। उन्होंने कहा कि समाज ने अनेक प्रकार की जातियों का निर्माण कर दिया है, और इसके कारण लोग एक-दूसरे से भेदभाव करते हैं। वे इस विचार का विरोध करते हैं और कहते हैं कि ईश्वर की दृष्टि में सभी मनुष्य समान हैं, और जाति या जन्म के आधार पर किसी को ऊंचा या नीचा नहीं माना जा सकता।

भावार्थ:

यह पद समाज में व्याप्त जातिवादी सोच के खिलाफ एक तीखा विरोध है। संत रविदास ने यहाँ यह स्पष्ट किया है कि जाति-व्यवस्था मानव निर्मित है और इससे केवल समाज में विभाजन और असमानता पैदा होती है।

9. "काहे रे नराहिं मेरो मन"

इस पद में संत रविदास मनुष्य को संबोधित करते हुए कहते हैं कि संसार की मोह-माया और इच्छाओं से परे होकर भगवान की भक्ति में ध्यान लगाओ। वे समझाते हैं कि यह संसार अस्थायी है, और मनुष्य को इसे छोड़कर ईश्वर की शरण में आना चाहिए।

भावार्थ:

इस रचना में संत रविदास ने संसार के असारपन और भगवान की भक्ति के शाश्वत मूल्य को बताया है। व्यक्ति को अपने जीवन में सांसारिक इच्छाओं से ऊपर उठकर भगवान की भक्ति में लीन रहना चाहिए।

10. "साहिब बंदी छोड़ है"

इस पद में संत रविदास ने भगवान को "बंदी छोड़" यानी वह जो बंधनों से मुक्त करता है, के रूप में वर्णित किया है। उन्होंने कहा कि भगवान अपने भक्तों को संसार के मोह-माया और बंधनों से मुक्त करते हैं। यह पद ईश्वर की कृपा और मुक्ति की महत्ता को दर्शाता है ।

संत रविदास की विचारधारा ने न केवल उनके समय के समाज पर गहरा प्रभाव डाला, बल्कि आज भी उनके उपदेश और संदेश हमें सामाजिक समरसता, मानवता और ईश्वर भक्ति की प्रेरणा देते हैं।

रविदास वाणी संत रविदास द्वारा रचित भक्ति और ज्ञान से परिपूर्ण रचनाओं का संग्रह है। इसमें उनके उपदेश, भजन, पद और दोहे शामिल हैं, जिनके माध्यम से उन्होंने सामाजिक सुधार, आध्यात्मिक चेतना और भक्ति का संदेश दिया। रविदास वाणी का साहित्य मुख्य रूप से सरल, सजीव और प्रेरणादायक भाषा में लिखा गया है, ताकि हर वर्ग के लोग इसे आसानी से समझ सकें और उसका अनुसरण कर सकें।

रविदास वाणी की प्रमुख विशेषताएं:

1. भक्ति मार्ग की प्रधानता:

रविदास वाणी का मुख्य आधार ईश्वर की भक्ति और उसकी उपासना है। इसमें निर्गुण भक्ति (निर्गुण ब्रह्म की उपासना) का विशेष महत्व है, जिसमें व्यक्ति बाह्य आडंबरों और दिखावे से दूर होकर सीधी, सच्ची भावना से भगवान को प्राप्त कर सकता है। उनके अनुसार, भक्ति के मार्ग पर चलने के लिए किसी विशेष जाति या वर्ग की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि सच्चे हृदय की आवश्यकता होती है।

2. सामाजिक समानता और समरसता का संदेश:

संत रविदास ने अपनी वाणी में जातिगत भेदभाव, ऊंच-नीच और सामाजिक असमानता का कड़ा विरोध किया। उन्होंने यह संदेश दिया कि सभी मनुष्य समान हैं और ईश्वर की दृष्टि में सभी का मूल्य एक समान है। उनकी वाणी में मानवता, करुणा और प्रेम का संदेश बार-बार उभर कर आता है, जिससे समाज में एकता और समरसता की भावना का प्रसार होता है।

3. आत्मज्ञान और आत्मबोध:

संत रविदास ने अपनी वाणी में आत्मज्ञान और आत्मबोध की बात की है। उन्होंने कहा कि ईश्वर हर व्यक्ति के भीतर विद्यमान है, और उसकी प्राप्ति के लिए बाहरी दिखावे और कर्मकांड की आवश्यकता नहीं है। व्यक्ति को अपने भीतर झांकने की जरूरत है और अपने आत्मा को पहचानने की। यही सच्चा मोक्ष और ईश्वर की प्राप्ति का मार्ग है।

4. सत्संग और साधुता का महत्व:

रविदास वाणी में सत्संग और साधु संगति की महत्ता को विशेष रूप से बताया गया है। उन्होंने कहा है कि सत्संग के माध्यम से व्यक्ति को सच्चाई का ज्ञान प्राप्त होता है और वह संसार के मोह-माया से ऊपर उठकर ईश्वर की भक्ति में लीन हो सकता है।

5. सादगी और सहजता:

रविदास वाणी की भाषा सरल और सजीव है, जो आम जनता के लिए आसानी से समझने योग्य है। संत रविदास ने सादगी और सहजता को अपने जीवन और रचनाओं में महत्वपूर्ण स्थान दिया। उनका मानना था कि भक्ति में कोई आडंबर या जटिलता नहीं होनी चाहिए, बल्कि सच्चे दिल से भगवान का स्मरण ही पर्याप्त है।

रविदास वाणी की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्ता:

रविदास वाणी केवल आध्यात्मिकता और भक्ति का ग्रंथ नहीं है, बल्कि यह समाज में व्याप्त कुरीतियों, भेदभाव और अन्याय के खिलाफ भी एक आवाज है। इसमें संत रविदास ने न केवल ईश्वर की महिमा का गान किया है, बल्कि समाज में एकता, समानता और सद्भाव का संदेश भी दिया है। यह वाणी आज भी समाज को नई दिशा दिखाने और सामाजिक सुधार के प्रयासों में प्रेरणा देती है।

रविदास वाणी के पद और भजन "गुरु ग्रंथ साहिब" में भी सम्मिलित हैं, जो इस बात का प्रमाण है कि उनकी रचनाएं सिर्फ रविदासी समुदाय तक सीमित नहीं थीं, बल्कि व्यापक समाज में भी उनका गहरा प्रभाव था।

रविदास वाणी के पद संत रविदास की भक्ति, दर्शन और समाज सुधारक दृष्टिकोण के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। उनके पदों में सरल भाषा, गहन आध्यात्मिकता और सामाजिक न्याय का संदेश स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। संत रविदास ने अपने पदों के माध्यम से सामाजिक असमानता, जातिगत भेदभाव और धार्मिक आडंबरों के विरुद्ध आवाज उठाई, और प्रेम, समर्पण, सादगी और ईश्वर की भक्ति का मार्ग दिखाया।

मृत्यु और विरासत: संत रविदास की मृत्यु के बारे में निश्चित जानकारी उपलब्ध नहीं है, लेकिन उनके अनुयायी मानते हैं कि उन्होंने जीवन पर्यंत समाज सेवा और ईश्वर भक्ति की राह पर चलते हुए अपना जीवन त्याग दिया। उनकी शिक्षाएं आज भी प्रासंगिक हैं और संत रविदास को न केवल भक्ति आंदोलन के महान संत के रूप में, बल्कि एक सामाजिक क्रांति के नायक के रूप में भी याद किया जाता है।

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