आत्मविश्लेषण (Self-Analysis), आत्मस्मरण (Self-Remembering) और सजगता (Mindfulness / Awareness)
BLOG
11/25/20251 मिनट पढ़ें
आत्मविश्लेषण (Self-Analysis), आत्मस्मरण (Self-Remembering) और सजगता (Mindfulness / Awareness)
1. आत्मविश्लेषण (Self-Analysis) — अपने भीतर झाँकने की कला
आत्मविश्लेषण का अर्थ है अपने विचारों, भावनाओं, इच्छाओं, प्रतिक्रियाओं और भीतर चल रही प्रवृत्तियों का सजग अध्ययन।
यह मन की “जाँच-पड़ताल” है — मानो आप स्वयं अपने मन के वैज्ञानिक हों।
आत्मविश्लेषण क्यों आवश्यक है?
क्योंकि अधिकांश मनुष्य अपने मन को नहीं जानते, सिर्फ उसके आदेशों पर चलते रहते हैं।
मन में जमा वासनाएँ, भय, क्रोध, दुख, हीन भावना, अहंकार — ये सभी अचेतन में छिपकर हमारे व्यवहार को नियंत्रित करते हैं।
आत्मविश्लेषण इस छिपी परत को उजागर करता है।
आत्मविश्लेषण में क्या किया जाता है?
1. किसी घटना पर अपनी प्रतिक्रिया को देखना
o मैं इतना नाराज़ क्यों हुआ?
o इस इच्छा के पीछे कौन-सा भय या लालसा है?
2. अपने भय और दुख की जड़ को खोजना
o डर बाहर की वस्तु से नहीं, मेरे भीतर की असुरक्षा से है।
3. अपने अहंकार को पहचानना
o मैं क्यों चाहता हूँ कि लोग मेरी प्रशंसा करें?
o क्या यह स्वीकृति-लालसा है?
4. अपने स्वाभाविक पैटर्न को देखना
o क्या मैं हर बार वही गलती दोहराता हूँ?
o क्या मैं भावनाओं के दबाव में निर्णय लेता हूँ?
आत्मविश्लेषण ध्यान कैसे बनता है?
जब आप स्वयं को बिना किसी न्याय, बिना आलोचना के देखते हैं —तभी यह देखना ध्यान बन जाता है।
आत्मविश्लेषण का लक्ष्य “खुद को बदलना” नहीं, खुद को समझना है।
समझ स्वतः परिवर्तन लाती है।
2. आत्मस्मरण (Self-Remembering) — ‘मैं हूँ’ की जागृति
यह सबसे गहरा ध्यान है।
आत्मस्मरण का अर्थ है — किसी भी क्रिया के बीच यह याद रखना कि “मैं हूँ”।
आत्मस्मरण क्या करता है?
हमारा जीवन “भूल” में गुजरता है —
हम क्रियाएँ करते हैं, पर साक्षी नहीं होते।
हम बोलते हैं, पर बोलते समय स्वयं को नहीं याद रखते।
हम चलते हैं, पर चलने वाले को नहीं देखते।
आत्मस्मरण मनुष्य को “यांत्रिकता” से “सजगता” में ले जाता है।
आत्मस्मरण का अनुभव कैसा होता है?
अचानक मन के भीतर एक बिंदु-सा जागता है:
“मैं अभी चल रहा हूँ।”
“मैं बोल रहा हूँ।”
“मैं भावुक हो रहा हूँ।”
“मैं देखने वाला भी हूँ, और देखा जाने वाला भी।”
यह एक तीव्र “अस्तित्व का अनुभव” है —मानो चेतना स्वयं को देख रही हो।
आत्मस्मरण का अभ्यास कैसे करें?
1. ‘मैं हूँ’ का शांत स्मरण
सांस लेते हुए मात्र ध्यान: मैं हूँ।
2. क्रिया के बीच स्वयं को याद करना
o खाने समय
o चलते हुए
o बात करते हुए
3. भावना उठे तो साक्षी बनना
क्रोध उठे → “मैं क्रोध को देख रहा हूँ।”
4. शरीर और मन को साथ-साथ जानना
यह दो-स्तरीय जागरण है:
o क्रिया
o क्रिया करने वाले का ज्ञान
यही “आत्मस्मरण” है —ध्यान की सबसे सूक्ष्म अवस्था।
3. सजगता (Awareness / Mindfulness) — वर्तमान में रहने की कला
सजगता का अर्थ है क्षण-क्षण को पूर्ण जागरूकता से जीना।
यह क्षण में पूर्ण रूप से उपस्थित रहने का अभ्यास है।
सजगता क्या करती है?
मन को अतीत-भविष्य की भटकन से रोकती है
तनाव कम करती है
मन की स्पष्टता बढ़ाती है
ध्यान की आंतरिक स्थिरता लाती है
सजगता का अर्थ क्या नहीं है?
सजगता “सोचना बंद करना” नहीं है।
सजगता का अर्थ है —सोच को आते-जाते देखना, पर उसे पकड़ना नहीं।
सजगता का अभ्यास कैसे करें?
1. सांस पर ध्यान —
सांस अंदर, सांस बाहर…
बस इतना ही पर्याप्त है।
2. शरीर को महसूस करना
o पैर धरती को छू रहे हैं
o सांस की गर्माहट
o हृदय की धड़कन
3. विचारों को आते-जाते देखना
जैसे आसमान में बादल आते-जाते हैं।
4. भावनाओं को देखना, दबाना नहीं
“यह क्रोध है” — बस इतना देख लेना ही सजगता है।
तीनों का बीच का संबंध
ये तीनों एक ही यात्रा के तीन चरण हैं:
आत्मविश्लेषण
→ मन की संरचना को समझता है
→ अंधकार में छिपी परतों को प्रकाश देता है
आत्मस्मरण
→ स्वयं को “उपस्थित” करता है
→ मन की यांत्रिकता टूटती है
सजगता
→ वर्तमान क्षण में स्थापित करती है
→ ध्यान की सहज अवस्था बनती है
जब तीनों मिलते हैं, तब ध्यान केवल “बैठकर करने की विधि” नहीं रहता —
पूरा जीवन ध्यान बन जाता है।
एक सुंदर उदाहरण -मान लें आपके सामने कोई व्यक्ति आपको अपमानित करता है।
आत्मविश्लेषण:
“मुझे चोट क्यों लगी? इसमें मेरे भीतर का कौन-सा अहंकार सक्रिय हुआ?”सजगता:
“यह क्षण है। विचार और भावना उठ रही है। बस इसे देखना है।”आत्मस्मरण:
“मैं हूँ… देखने वाला भी मौजूद है।”
तीन क्षणों के भीतर पूरा अनुभव बदल जाता है। अब प्रतिक्रिया नहीं, समझ होती है। यहीं से मुक्तता शुरू होती है।
ओशो , कृष्णमूर्ति दृष्टिकोण
दोनों का मार्ग अलग दिखता है, पर अंत में दोनों सजगता की पूर्ण स्वतंत्रता की ओर ले जाते हैं।
ओशो का दृष्टिकोण
ओशो के लिए मूल मंत्र है —"सजग हो जाओ… बस इतना ही।"
वे कहते हैं:“यदि तुम्हारे भीतर साक्षी जाग जाए, तुम मुक्त हो।”
ओशो की दृष्टि तीन स्तरों में समझी जा सकती है:
आत्मविश्लेषण (Osho on Self-Analysis)
ओशो विश्लेषण को सीमित मानते हैं।
वे कहते हैं कि विश्लेषण मन की परतें तो खोलता है, पर मन को समाप्त नहीं करता।
लेकिन शुरुआती स्तर पर यह उपयोगी है क्योंकि:
अवचेतन में छिपे भाव दिखाई देते हैं।
हम जान पाते हैं कि हम किस कारण दुखी हैं।
मन की यांत्रिकता प्रकट होती है।
पर ओशो कहते हैं:
“विश्लेषण बहुत दूर नहीं ले जाता, क्योंकि विश्लेषण वही मन कर रहा है जो समस्या है।” इसलिए आत्मविश्लेषण केवल प्रारंभिक तैयारी है। असल कार्य आगे है।
आत्मस्मरण (Osho on Self-Remembering)
ओशो, गुरजिएफ के “Self-Remembering” सिद्धांत को बहुत महत्व देते हैं।
ओशो कहते हैं: “जहाँ भी हो, कुछ क्षण-क्षण पर अपने भीतर ‘मैं हूँ’ का दीपक जलाओ।” उनके अनुसार आत्मस्मरण वह क्षण है जब:
क्रिया होती है
और साथ ही साक्षी भी मौजूद होता है
भीतर अचानक एक ऊर्जा का ज्वालामुखी जागता है
मन शांत नहीं, बल्कि पारदर्शी हो जाता है
यह अस्तित्व का जीवंत अनुभव है। यही असली ध्यान है।
ओशो इसे कहते हैं: “मैं हूँ — और बस इतना ही पर्याप्त है।”
आत्मस्मरण में व्यक्ति की ऊर्जा भीतर की ओर मुड़ने लगती है, जहाँ मौन, आनंद और शून्य की अनुभूति होने लगती है।
सजगता (Osho on Awareness)
ओशो के अनुसार: सजगता = ध्यान का शिखर
सजगता वह अवस्था है जहाँ:
कोई विश्लेषण नहीं
कोई ‘मैं’ का प्रयास नहीं
कोई साधना नहीं
केवल समग्र उपस्थिति
ओशो कहते हैं:“सांस को देखो, विचारों को देखो—कुछ मत करो।
तुम्हारी साक्षी-शक्ति ही तुम्हें मुक्त कर देगी।”
ओशो का सारा जोर इस पर है कि सजगता जीवन का स्वभाव बन जाए।
चलते समय, बोलते समय, खाते समय, काम करते समय…हर क्षण साक्षी जागा रहे।
जिद्दू कृष्णमूर्ति का दृष्टिकोण
कृष्णमूर्ति का मार्ग ओशो से भी अधिक सूक्ष्म है। वे किसी तकनीक, विधि, मंत्र या अभ्यास को महत्व नहीं देते। उनकी बुनियाद है:
“देखना—बिना निर्णय, बिना चयन।”
आत्मविश्लेषण (Krishnamurti on Self-Analysis)
कृष्णमूर्ति विश्लेषण के कट्टर विरोधी हैं।
उनके अनुसार:
विश्लेषण = स्मृति का काम
स्मृति = अतीत
अतीत = मृत
और “मृत” मन वर्तमान को नहीं जान सकता।
वे कहते हैं: “जब तक विश्लेषण है, मन विभाजित रहता है — देखने वाला और जिसे देखा जा रहा है। द्वंद्व समाप्त होना चाहिए।”
कृष्णमूर्ति के अनुसार:
जिसे आप विश्लेषण कहते हैं, वह मन की चतुराई है।
उनका जोर केवल “देखने” पर है, “समझने” पर नहीं।
आत्मस्मरण (Krishnamurti on Self-Remembering)
कृष्णमूर्ति के यहाँ “Self-Remembering” शब्द नहीं मिलता। क्योंकि जहाँ "Self" (स्व) है, वहाँ संघर्ष है, वहाँ द्वैत है।
वे कहते हैं: “‘मैं’ को याद करना ही समस्या है।
समस्या का अंत तभी होता है जब ‘मैं’seen हो जाए।” उनके अनुसार आत्मस्मरण तभी शुद्ध होता है जब:
“मैं” (अहंकार) देखा जाए
यह समझा जाए कि “मैं” = विचारों का संग्रह है
और यह पूरा ढाँचा पहचान में आते ही स्वतः शांत हो जाता है
वे आत्मस्मरण को “विचार की प्रकृति को समझना” कहते हैं, ना कि “मैं हूँ” का दोहराव। उनकी दृष्टि में “मैं हूँ” भी एक विचार बन सकता है, इसलिए सावधान रहना चाहिए।
सजगता (Krishnamurti on Awareness)
कृष्णमूर्ति के लिए सजगता है: “Pure Awareness — शुद्ध देखना”
जहाँ कोई प्रयास नहीं है।
कोई तकनीक नहीं
कोई साधक नहीं
कोई साधना नहीं
केवल ‘जो है’ का देखना
वे कहते हैं: “Mindfulness is choiceless awareness.”
“जब देखने वाले और देखे जाने वाली वस्तु में कोई दूरी नहीं—वही ध्यान है।”
कृष्णमूर्ति का ध्यान बिना योगासन, बिना प्राणायाम, बिना मंत्र, बिना विधि का ध्यान है।
यह “सूक्ष्म देखना” है जिसमें:
विचार जैसे उठता है, देखा जाता है
भावना जैसे उठती है, देखी जाती है
कोई हस्तक्षेप नहीं होता
देखना पूर्ण और निष्पक्ष होता है
और इसी अद्वैत-जागरण में विचार स्वयं शांत हो जाता है।
सूफ़ी दास्तान: “तीन दरीचों वाला मक़ाम”
पुरानी नगरी के बाहर एक बंजर टीले पर एक मक़ाम था। मक़ाम के बारे में लोग कहते थे—“वहाँ पहुँचने वाला अपने आप को पा लेता है।” पर उस मक़ाम तक पहुँचने का रास्ता धूल भरा, सुनसान और कठिन था। लोग जाते तो थे, पर लौटकर वही नहीं रहते जो गए थे।
एक दिन एक युवक—जिसका नाम अरिफ़ था—अपने भीतर उठती बेचैनी लेकर उस मक़ाम की ओर चल पड़ा।
पहला दरीचा: आत्मविश्लेषण — ‘अंधेरी कोठरी का आईना’
मक़ाम के दरवाज़े पर एक बूढ़ा दरवेश बैठा था। वह मुस्कुराया और बोला: “अंदर तीन दरीचे हैं। पहले दरीचे में एक आईना है—पर वह साफ़ नहीं, धूल से अटा हुआ। उसे साफ़ करने की हिम्मत भी चाहिए और सच देखने की ईमानदारी भी।”
अरिफ़ भीतर गया और पहले दरीचे का दरवाज़ा खोला। अंदर पूरा कमरा अँधेरा था। बीच में एक पुराना आईना पड़ा था, जिस पर इतनी धूल थी कि अपना चेहरा भी न दिखे।
दीवार पर एक पंक्ति लिखी थी:
“खुद को जानना हो—तो अपने घावों की तरफ़ मत्फ़क़िर (विचारशील) बनो।”
अरिफ़ ने आईना उठाया और धीरे-धीरे धूल हटाने लगा। जैसे-जैसे धूल हटती गई, वह अपनी ही झलक देखता गया:
कहीं डर का चेहरा,
कहीं क्रोध की लकीरें,
कहीं हीन भावना की छाया,
कहीं अहंकार का धुआँ,
कहीं छिपी इच्छाओं का बोझ… वह घबरा गया। चिल्लाया: “यह मैं कैसे हो सकता हूँ?”
दरीचे की दीवार से आवाज़ आई: “जो तुम अपने भीतर से भागते हो, वही तुम्हें अंधेरा दिखता है। देख लो—बस देख लो। यही आत्मविश्लेषण है।”
अरिफ़ रो पड़ा…पर आईना रखकर बाहर आया तो उसका चेहरा हल्का था। अंधकार पहचान लिया था—अब उससे डर कम था।
दूसरा दरीचा: आत्म स्मरण — ‘मैं हूँ का उजाला’
दूसरे दरीचे पर एक और वाक्य लिखा था: “जो अपने भीतर को याद रखे, वही रोशन हो।”
अंदर एक दीपक था—मगर बुझा हुआ।
एक दरवेश की आवाज़ फुसफुसाई: “अरिफ़, इस दीपक को अपने स्पर्श से नहीं,
अपनी उपस्थिति से जलाओ।
याद करो—मैं हूँ…” अरिफ़ ने आँखें बंद कीं। न कोई मंत्र, न कोई जप, न कोई शब्द— सिर्फ अपने भीतर उतरना।
कुछ पल बाद उसके भीतर एक शांत लहर उठी— जैसे उसने पहली बार खुद को जीवित महसूस किया हो। और चमत्कार— दीपक स्वयं जल उठा। कमरे में उजाला फैल गया।
दीपक पर लिखा था: “जब भी दुनिया तुम्हें खींचे—सांस लो… और याद करो: मैं हूँ।
यही आत्मस्मरण है।
जागरण का प्रथम प्रकाश।”
अरिफ़ ने देखा कि उसके भीतर एक नया केंद्र जन्म ले चुका था— एक स्थिर, मौन, चमकता हुआ।
तीसरा दरीचा: सजगता — ‘वर्तमान की दरिया’
तीसरे दरीचे का दरवाज़ा खुलते ही, एक बहती नदी सामने आई। उसके किनारे एक फ़क़ीर बैठा था।
फ़क़ीर ने पूछा:“क्या तुम यह नदी देख रहे हो?”
अरिफ़ ने कहा, “हाँ, यह नदी है।”
फ़क़ीर मुस्कुराया:
“नदी को नहीं, अपने देखने को देखो।
यही सजगता है।”
अरिफ़ ने नदी को फिर देखा—अब नदी नदी नहीं थी।
बल्कि उसके भीतर कुछ “देख रहा था”—एक मौन, भरपूर, बेनाम उपस्थिति।
क्षण जैसे रुक गया। इस पल की ताजगी इतनी गहरी थी कि विचार भी उतर गए।
फ़क़ीर बोला: “बेटा, जीवन भी ऐसी ही नदी है।
इसे बहने दो—तुम बस देखते रहो।
यही सजगता है।
न पकड़ना, न ठुकराना—बस देखना।”
अरिफ़ को अनुभूति हुई कि उसके भीतर और बाहर की सीमाएँ घुल रही हैं।
मक़ाम का रहस्य
अरिफ़ तीनों दरीचे पार कर बाहर आया। बूढ़ा दरवेश अब भी मुस्कुरा रहा था।
दरवेश बोला: “पहले दरीचे ने तुम्हें तुम्हारा अंधेरा दिखाया।
दूसरे दरीचे ने तुम्हें तुम्हारा दीपक दिया।
तीसरे दरीचे ने तुम्हें तुम्हारी आज़ादी सिखाई।
अब यात्रा तुम्हारी है—मक़ाम सिर्फ़ एक प्रारंभ था।”
अरिफ़ ने झुककर सलाम किया।
वह वही नहीं था जो आया था—उसके भीतर अब रोशनी का एक सुनहरा धागा जग चुका था:
— देखने का
— याद रखने का
— जागने का
और यही तीनों—
आत्मविश्लेषण, आत्म स्मरण और सजगता— उसके जीवन के नए साथी बन गए।
हमारा उद्देश्य केवल सजगता बढ़ाना है ,हम जन साधारण को संतो, ध्यान विधियों ,ध्यान साधना से संबन्धित पुस्तकों के बारे मे जानकारी , इंटरनेट पर मौजूद सामग्री से जुटाते है । हम किसी धर्म ,संप्रदाय ,जाति , कुल ,या व्यक्ति विशेष की मान मर्यादा को ठेस नही पहुंचाते है । फिर भी जाने अनजाने , यदि किसी को कुछ सामग्री सही प्रतीत नही होती है , कृपया हमें सूचित करें । हम उस जानकारी को हटा देंगे ।
website पर संतो ,ध्यान विधियों , पुस्तकों के बारे मे केवल जानकारी दी गई है , यदि साधकों /पाठकों को ज्यादा जानना है ,तब संबन्धित संस्था ,संस्थान या किताब के लेखक से सम्पर्क करे ।
© 2024. All rights reserved.
