आचार्य द्रोण और एकलव्य

श्रेष्ठ गुरु श्रेष्ठ शिष्य

BLOG

10/5/20241 मिनट पढ़ें

समयातीत के साथ-साथ कुछ घटनाओं को समझना बहुत कठिन हो जाता है। ऐसा ही किस्सा आचार्य द्रोण और एकलव्य का है। आधुनिक युग के विचारक गुरु द्रोण के दक्षिणा मांगने पर सवालिया निशान खड़ा करते है, की क्यों एक श्रेष्ठ धनुधर का अँगूठा दक्षिणा के रूप में माँगकर उस धनुधर की कला को ही खत्म कर दिया गया।

जीवन को जीने के लिए मानव को चार आयामों से गुजरना और किसी एक में ठहरना जरूरी बना रहता है। इन आयामों को क्रमानुसार तर्क, प्रेम, समर्पण और संपूर्ण चेतना के रूप में विभाजित किया गया है। अधिकतर मानव तर्क के आधार पर अपना जीवन जीते है, जोकि लगभग 95% कुल मानव संख्या का रहता है। कुल मानव संख्या का 3% मानव, प्रेम में जीवन बिताते है, जिसमें कुछ परमात्मा के प्रेम में और कुछ भोग विलास के प्रेम में खोये रहते है । तीसरा आयाम जोकि समर्पण है, इसमें कुल मानव संख्या का 1% ही पाया जाता है, तथा चौथे आयाम को कुल मानव संख्या का 1% मानव ही प्राप्त कर पाता है।

ज्ञान को श्रेणी क्रम में तीन भागों में बांटा जाता है , 1 कला 2 व्यापार 3 विज्ञान। इन सब में सबसे आसान विज्ञान है । विज्ञान में सभी नियम पहले से ही वर्णित होते है, कभी- कभी कोई नया नियम खोजा जाता है । इसलिए विज्ञान में ज्यादा कुछ नहीं पाया जाता है । दूसरा है व्यापार, यह विज्ञान से थोड़ा कठिन है, क्योंकि व्यापार सदा दो की सहमति से किया जाता है । जिसमें एक लेनदार और दूसरा देनदार । यदि दोनों में कोई एक अपना वादा पूरा नहीं कर पाता है, तब कठिनाई शुरू होती है ।

ज्ञान की सर्वोतम ऊँचाई कला है, कला को जब कोई अपने जीवन यापन के लिए प्रयोग करता है, तब यह व्यवसाय बन जाती है। जब कोई कला के साथ जीता है तब वह कलाकार बन जाता है । परन्तु जब कोई कला को साधता है, और कला के सर्वोच्च शिखर को पा लेता है, तब वह साधना बन जाती है ।

ठीक उपरोक्त के अनुसार गुरु द्रोण के समय के सभी धनु धारी भीष्म, कर्ण, अर्जुन, अश्व थामा, वीर बर्बरीक सभी कलाकार रहे है । इनमें कोई राज के लिए, कोई घर आश्रम के लिए, कोई अपने अहंकार को शांत करने के लिए धनुधर बने है। इन सबके तीरों से, जब भी छोड़े गए हिंसा ही हुई है । चाहे ये इतिहास में अपने नाम को कही भी दर्ज करवा पाये है ।

जब महाभारत का युद्ध निश्चित हो ही गया था, और अलग-अलग क्षेत्र से सभी लड़ने की चाह वाले एकत्रित हो रहे थे । तथा यह निश्चित हो चुका था कि इस युद्ध में भाग लेने वाला शायद ही कोई बचें । तब गुरु द्रोण एकलव्य से अँगूठा माँगते है ।

थोड़ा ध्यान दे, आप सभी को ज्ञात होगा कि जब कोई किसी से किसी प्रकार का लेनदेन करता है , उधार के रूप में तब देनेवाला किसी कागज़ या पत्र पर अँगूठा माँगता है , इसका एक रूप में अर्थ है कि में वचन देता हूँ । ठीक इसी तरह सांकेतिक रूप से ही एकलव्य का अँगूठा मांगा गया था।

अब सवाल ये उठता है कि एकलव्य से ही क्यों, बाकी से क्यों नहीं माँगा गया। इसका मुख्य कारण एकलव्य कि साधना है , यदि आपने महाभारत पढ़ी है तो यह याद ही होगा। जब एकलव्य ने एक स्वान (कुता ) जो ज़ोर-ज़ोर से भोंक रहा था, उसके मुंह में तीर मारे । कुछ ही क्षण में स्वान का मुंह तीरों से भर गया, और तीरों ने स्वान को कोई चोट भी नहीं पहुंचायी। यही एक कुशल साधक कि महानता है अर्थात बिना हिंसा के तीर । एकलव्य के तीरों कि भांति अन्य धनुधरों के तीर नहीं काम कर रहे थे, अन्य के तीर जब भी चले है हिंसा ही की है ।

यहाँ गुरु द्रोण को यह भलीभाँति ज्ञात रहा होगा, यदि सारे धनुधर मर भी गए तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता, अगली पीढ़ी में फिर धनुधर पैदा हो जाएंगे । परंतु यदि एकलव्य मर जाता है तो कला भी मर जाएगी । ऐसी कला की साधना अन्य किसी के पास नहीं थी, कि तीर अहिंसा के लिए भी प्रयोग हो सकता है ।

अंत: एकलव्य का अँगूठा एक सांकेतिक माँग है, जोकि एक वादे के रूप में रही होगी, इसका मुख्य कारण एक श्रेष्ठ धनुधर को बचाना नहीं, अपितु इसका उद्देश्य कला को बचाना रहा होगा। कभी कभी कोई विरला कला साधक ही कला में निष्णात हो पाता है। एक कुशल गुरु ही उसकी पहचान कर पाता है।

उपरोक्त लेखक के अपने विचार है, किसी धर्म ग्रंथ और किसी मानव पर कोई टीका टिप्पणी नहीं है ।